Book Title: Sanch Ko Aanch Nahi
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Chandroday Parivar

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Page 89
________________ +G000 “सांच को आंच नहीं" 009602 धीरे-धीरे मेधा शक्ति, धारणा शक्ति कम होने लगी, काल विषम होने लगा, दुष्काल वगैरह पडे, श्रमणों की संघयण -सहनशीलता कम होने लगी, राजकीय परिस्थितियां विषम होने लगी, अंतर - बाह्य युद्ध वगैरह की विकट परिस्थितियां भी होने लगी । ऐसी परिस्थितिओं के कारण श्रमणों को संयमनिर्वाह हेतु मगध आदि क्षेत्र को छोडकर सुकाल वाले दूर-दूर के क्षेत्रों में विचरण करना पडा । दुर्लभ भिक्षा, विहारादि के कारण स्वाध्याय हानि होने से श्रुत का बहुत भाग विस्मृत प्राय: हो गया, उसे पुन: समय - समय पर संकलित किया गया । तब कई परंपरागत पाठान्तर आदि भी उपस्थित हुए, जिन्हें भी उचित रीति से संकलित किया गया । प्रथम वाचना - पाटलीपुत्र में भद्रबाहुस्वामी के समय में हुई। दुसरी वाचना - मथुरा में स्कंदिलाचार्य की निश्रा में । तीसरी वाचना - वल्लभीपुर में नागार्जुनाचार्य की निश्रा में । चौथी वाचना - वल्लभीपुर में देवर्धिगणिजी की निश्रा में । माथुरी एवं नागार्जुनीय दोनों वाचना की परंपरा को एक करने के प्रयास पूर्वक आगमों को पुस्तकारुढ किया गया। इसके अलावा खारवेल राजा के समय भी श्रुत उद्धार होने का उल्लेख मिलता है। आगमकी मान्यता के अनुसार एक-एक अक्षर लिखने पर प्रायश्चित आता है, परंतु लाभालाभ को देखकर देवर्धिगणिजी के समय से यह आगम लेखन शुरु हुआ । परंतु उस समय कागज दुर्लभ थे, अत: एकदम निकटनिकट लिख्ने जाते थे । नियुक्ति, भाष्य, संग्रहणी आदि को पृथक्-पृथक् निर्देश करनेका प्रयास नहीं किया जाता था । वर्तमान की संपादन शैली में सुखबोध के लिए किये जानेवाले अल्पविराम पूर्णविराम आदि भी प्रायः नहीं रखे जाते थे । इस कारण कुछ भाष्य-गाथाएँ नियुक्ति में मिश्रित हो गयी, संग्रहणी, नियुक्ति गाथाएँ आदि मूलसूत्र में मिश्रित हो गयी। यह बात · दशवकालिक की अगस्त्यसिंहजी की चूर्णि के द्वारा पता चलती है । जिसे 85.

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