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-6000 “सांच को आंच नहीं” (0902 अपनी तरफ खींचने की कोशिश करनी पड़ती है तथा दुसरा कोई अर्थ नहीं कर सकते हो तब मूलसूत्रों में प्रक्षेप - प्रक्षेप का मिथ्या बकवास करना पडता है । (देखिये उसी के पृ. ४५ से पृ. ४७) और युक्तियों को भी अपनी तरफ खींचने पडती है। अगर लेखक अभिनिवेश के काले चश्मे को उतार कर तटस्थ दृष्टि से विचारें, तो यह सब करने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।
___ "मुखवत्रिका संवाद" जिज्ञासु :- मत्थएण वंदामि । आज आपने प्रवचन में वायु में असंख्यात जीवों का होना बताया, तो उनकी रक्षा के लिए मंदिरमार्गी संत मुंह पर मुंहपत्ति क्यों नहीं बांधते है ?
सद्गुरु : बोलने आदि के समय हाथ के द्वारा मुंहपत्ति को मुंह के आगे रखने से यतना हो जाती है, अत: बांधने की जरुरत नहीं रहती है।
जिज्ञासु :- मत्थएण बंदामि ! अगर मुंहपत्ति बांधकर रखें तो, मुंह के एकदम नजदीक रहती है, अत: वायुकाय के जीवों की विराधना नहीं होती है । जबकि हाथ में रखी मुंहपत्ति मुंह से थोडी दूर रहती है, अत: वायुकाय के जीवों की विराधना होती है।
. सद्गुरु : पहली बात तो यह है कि, हाथ में रखी हुई, मुंहपत्ति भी मुंह के एकदम नजदीक रह सकती है तथा मुंहपत्ति बांधने पर भी मुंह और मुंहपत्ति के बीच में रहे हुए असंख्य वायुकाय के जीवों की विराधना तो होती ही है, इसलिए बांधने की जरुरत नहीं हैं।
. दुसरी बात, ३२ या ४५ आगमों में कहीं भी मुखवस्त्रिका के प्रयोजनों में वायुकाय की रक्षा को नहीं बताया है, परंतु संपातिम (उडनेवाले सूक्ष्म जीव) की यतना को उसका प्रयोजन बताया गया है। - जिज्ञासु : कलिकालसर्वज्ञ हेमचंद्राचार्य द्वारा रचित योगशास्त्र में तो वायुकाय की यतना को भी प्रयोजन रुप में बताया ही है, यह तो मंदिरमार्गी आचार्य का ही ग्रन्थ है।
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