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" सांच को आंच नहीं "
ऐसा कहते है, जबकि वास्तविकता यह नहीं है क्योंकि आगे खुद ही पूर्वाचार्यों की निंदा - उन पर आक्षेप करते है ।
(२) लेखक ने खुद के वास्तविक पूर्वज घासीलालजी को महान् पूर्वाचार्यों से भी ज्यादा महत्व देने की कोशिश की है । जबकि उनकी ३२ सूत्र की टीकाएँ, अनेक स्थलो में पूर्व टीका - पाठों की कोपी की हुई, कहीं पर पाठ परिवर्तनवाली - कहीं पर अर्थ परिवर्तनवाली और भाडुती पंडितों द्वारा बनवायी गयी हैं ।
(३) गुंजार के पृ. ९ पर द्रौपदी के द्वारा कामदेव की पूजा और पृ. १० पर शाश्वत प्रतिमा तीर्थंकर की नहीं है, इसकी सिद्धि करने की कोशिश की है और पृ. ४७ पृ. ४९ में उन स्थलों पर पाठ प्रक्षेप के झूठे आक्षेप दिये हैं । अगर वे पाठ झूठे है तो कामदेव वगैरह अर्थ ही क्यों किये ? आप अर्थ करते हो उसका मतलब पाठ सच्चे है, अन्यथा कामदेव वगैरह अर्थ करने की जरुरत ही नहीं पडती । आपकी इस चेष्टा से सामान्य व्यक्ति भी समझ सकता हैं कि आपको मूर्ति मूर्तिपूजा के प्रति द्वेष है, शास्त्रों के प्रति प्रेम नहीं है, इसलिए उपर बतायी कुयुक्तियों को खींचने की कदाग्रही की भूमिका निभा रहे हो ।
(४) पृ. ४८ से ५० में विद्वंद्वर्य कल्याणविजयजी के नाम से गलत बातें पेश की है ।
(५) पृ. ५१ ‘द्रव्यपूजा भावपूजा' में बेईमानी से पूर्वपक्ष का आधा पाठ ही पेश करके पाठकों को भ्रमित करने की कोशिश की है ।
(६) ' मुखवस्त्रिका वार्ता' प्रकरण में कदाग्रह से दिनभर मुहपत्ती मुँह पर बांधने की कुप्रथा की सिद्धि में पाठकों को भ्रमित करने हेतु १७ गलत प्रमाण पेश किये हैं ।
(७) अपनी गलत मान्यता के काले चश्मे पहने हो तो, आगमों को भी
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