Book Title: Sanch Ko Aanch Nahi
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Chandroday Parivar

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Page 102
________________ 500 “सांच को आंच नहीं” (09002 की तरह निडर रूप से अपनी बुद्धि से निर्णय नहीं देते हैं क्योंकि खुद की छद्मस्थता का उन्हें स्पष्ट ख्याल था। अंत मे वे 'तत्त्वं केवलीगम्यं' कह देते थे, परंतु लेखक की तरह बिना प्रमाण से पाठ को बदल करने का दुस्साहस नही करते थे । इसके अनेक उदाहरण आगम की टीकाओं में मिलते हैं, केवल ग्रन्थ गौरव के भय से नहीं दिये जाते है । प्रश्न-२५ का उत्तर :- भगवती सूत्र के अंतमें मंगल प्रशस्ति लिपिकर्ता की है इसलिए अभयदेवसूरिजी ने व्याख्या नहीं की, ऐसा नहीं है, परंतु वह प्रशस्ति स्पष्टार्थ है इसलिए व्याख्या नहीं की है । उन्होंने कहा है कि - __ ‘णमो गोयमाइणं गणहराणमित्यादयः पुस्तकलेखककृता नमस्काराः प्रकटार्थाश्चेति न व्याख्याताः ॥' यानि कि - णमो गोयमाइणं वगैरह नमस्कार पुस्तक के लेखक द्वारा किये गये है और वे स्पष्ट अर्थ वाले है, अत: उनकी व्याख्या नहीं की गयी है।" मंदिरमार्गी समाज द्वारा प्राय: आगों का सटीक ही संपादन किया जाता है, अत: वे गाथाएँ टीका की स्पष्टीकरण वाले पाठ के साथ ही छापी जाती है । अत: मूल के पाठ के साथ उन्हें जोडने की बात नहीं आती है। केवल मूलसूत्र वाले आगमों का संपादन, तो मुख्यरुप से स्थानकवासी एवं तेरापंथीसमाज की ओर से प्रकाशित होता है, अत: लेखक के द्वारा यह आक्षेप घुम-फिर कर स्थानकवासी समाज पर ही है, जो वास्तव में उचित भी नहीं है । इसमें न तो स्थानकवासी समाज या तेरापंथ समाज की गलती है, क्योंकि वे तो मूलसूत्र की उपलब्ध प्रतीमें जैसा पाठ है, उसे छाप रहे है ? उपलब्ध प्रतीं के पाठों की कांट-छांट करना प्रामाणिक संपादन के लिए उचित नहीं है, अत: दोनों समाज भी अगर उन पाठों को छापते हैं, तो वह वफादारी ही है, फिर भी अगर लेखक ऐसे संपादक को गलत कहते है तो इसे लेखक की स्वच्छन्दमति का विलास ही कहना चाहिए, जो अपने संप्रदाय पर भी कीचड उछालने से नहीं अटकते हैं । प्रश्न-२६ का उत्तर :- “चेइयरुक्खे त्ति बद्धपीठा वृक्षा येषामधः केवलान्युत्पन्नानि” समवायांग सूत्र १५७ टीका (प्रकीर्णक समवाय) - . 98 - .

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