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4-0 “सांच को आंच नहीं" 09602
'चैत्यवृक्षा मणिपीठिकानामुपरिवर्तिनः सर्व रत्नमया उपरिच्छत्रध्वजादिभिरलङ्कृताः सुधर्मादिसभानामग्रतो ये श्रूयन्ते ते एव इति सम्भाव्यत' - स्थानांग सूत्र अध्ययन ८ सूत्र ६५४ टीका
अश्वत्थादयश्चैत्यवृक्षा ये सिद्धायतनादि द्वारेषु श्रूयन्त इति । - स्थानांग १० स्थान्, सूत्र ७३६ । अधोबद्धपीठिके उपरि चोच्छ्रितपताके वृक्षे' - उत्तराध्ययनसूत्र - अध्ययन९ श्लोक १० की शांतिसूरि-टीका
चितिरिहेष्टकादिचयः तत्र साधुः - योग्यश्चित्यः प्राग्वत्, स एव चैत्यस्तस्मिन्, किमुक्तं भवति ? .
इन सब टीका ग्रन्थ आदि से “चैत्यवृक्ष” का बांधी हुई पीठिकावाले वृक्ष अर्थात् जिन वृक्षों के आस-पास इटें या मणि आदि से बांध काम किया गया हो, ऐसा अर्थ होता है।
तथा प्रकाण्ड विद्वान पं. कल्याणविजयजी के मत में 'चैत्य' शब्द का अर्थ इस प्रकार है - "उपर्युक्त संक्षिप्त विवरण से पाठकगण समझ सकेंगे कि चैत्यशब्द “साधुवाचक” अथवा “ज्ञानवाचक” न कभी था न आज भी है । क्योंकि “चैत्य” शब्द की उत्पत्ति पूजनीय अग्निचयन वाचक “चित्या” शब्द से हुई है न कि 'चिता' शब्द से अथवा 'चिति संज्ञाने' इस धातु से । इन प्रकृतियों से “चैत”, “चित्त”, “चैतस्” शब्द बन सकते है, 'चैत्य' शब्द नहीं । श्री पुप्फभिक्खू की समझ में यह बात आ गई कि शब्दों का अर्थ बदलने से कोई मतलब हल नहीं हो सकता । पूजनीय पदार्थ - वाचक “चैत्य” शब्द को सूत्रों में से हटाने से ही अमूर्तिपूजकों का मार्ग निष्कण्टक हो सकेगा।" . .
(पट्टावली पराग पृ. ४५६) . “कोशकारों ने 'चैत्य' का अर्थ - 'जिनौकरतबिम्बं, चैत्यो जिनसभातरुः किया है ।" (उपरोक्त पुस्तक के पृ. ४५५)
प्रश्न-२७ का उत्तर :- द्वीपसागर प्रज्ञप्ति को आगम मानते ही है, ४५ आगम में उसकी गिनती नहीं करने में पूर्वाचार्यों की ४५ आगमों की संख्या
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