Book Title: Sanch Ko Aanch Nahi Author(s): Bhushan Shah Publisher: Chandroday ParivarPage 80
________________ 500 “सांच को आंच नहीं" (O9001 ... “अंग साहित्य में भगवान महावीर की वाणी अपने बहुत कुछ अंशों में ज्यों की त्यों अब भी प्राप्त होती है । इस वाणी के तोडा-मरोडा नहीं गया है । यह जैन परम्परा की विशेषता रही कि अंगों को लिपिबद्ध करने वाले श्रमणों ने मूल शब्दों में कुछ भी हेरा -फेरी नहीं की, जैसा कि अन्य परम्पराओं में हुआ है । अंग एवं आगम साहित्य पर टीकाओं, चूर्णियों आदि की रचना हुई किन्तु आगम का मूल रूप ज्यों का त्यों रहा । साथ ही देवर्धिगणी क्षमाश्रमण की यह उदारता रही कि जहाँ उन्हें पाठान्तर मिले वहाँ दोनों विचारों को ही तटस्थतापूर्वक लिपिबद्ध किया ।" (जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा पृ. ४४) "मध्यकाल के घोटाले" की समीक्षा इसमें पं. श्री कल्याणविजयजी के प्रबंध पारिजात के आधार पर पाठ दिया है एवं आगे भी इसकी विशेष जानकारी हेतु प्रबंध पारिजात के अध्ययन की भलामण की है। परंतु सारे प्रबंध परिजात में न तो इनका दिया पाठ है न इन्होंने लिखी ऐसी कोई बात है । अज्ञ पाठकों को गुमराह करने के लिए ऐसी मनघडंत बातें लिखते है । सत्यान्वेषी पाठक तो जाँचकर ही वस्तु को स्वीकारेंगे । बाकी अज्ञ पाठक तो अवश्य गुमराह हो जाते है, जिसका पाप लेखक के सिर पर रहेगा। लेखक की चालबाजी देखिये - पं. श्री कल्याणविजयजी का मिथ्या सहारा लेकर अपनी खिचडी पकायी है, मनघडंत बातें लिखी है । पाठक मध्यकालादि के विषय में पं. श्री कल्याणविजयजी की मान्यता को जानने के लिये उनका ही पाठ देखें और लेखक की प्रामाणिकता का निर्णय करें। "विक्रम की चौथी शती से ग्यारहवी शती तक शिथिलाचारी साधुओं का प्राबल्य हो चुका था । फिर भी वह उनका युग नहीं था । हम उसे उनकी बहुलता वाला युग कह सकते हैं, क्योंकि उस समय भी उद्यतविहारी साधुओं 76. -Page Navigation
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