Book Title: Sanch Ko Aanch Nahi
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Chandroday Parivar

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Page 58
________________ -G006 “सांच को आंच नहीं" (0902 - ज्यों ज्यों क्रियावादी, बस्तीवासी, और उग्र विहारियों का जोर बढ़ता गया त्यो त्यों चैत्यवासियों की सत्ता हटती गई, विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में तो चैत्यवासियों की सत्ता बिलकुल ही अस्त हो गई, कारण उस समय कलिकाल सर्वज्ञ भगवान हेमचन्द्रसूरि, राजगुरु कवसूरि, मल्लधारी अभयदेवसूरि; वादीदेवसूरि, जयसिंहसूरि, शतार्थी सोमप्रभसूरि, जिनजन्द्रसूरि आदि सुविहिताचार्यों का प्रभाव चारों ओर फैल गया था, और महाराज कुमारपाल जैसे जैन नरेशों की सहायता से जैन धर्म का खूब प्रचार हो रहा था, इसी से चैत्यवासियों का उस समय प्राय: अंत हो गया था । अर्थात् उस समय कोई भी साधु चैत्य (मंदिर) में नहीं ठहरता था । किंतु सर्वत्र वस्तीवासियों का विजय डा बज रहा था । वह समय जैनधर्म की उन्नति का था, इस समय में जैन जनता की संख्या १२ करोड़ तक पहुँच गई थी । पहिले जो पुकार बार बार की जा रही थी, कि चैत्यवास को दूर करो यह पुकार चैत्यवास दूर होने से स्वत: नष्ट हो गई थी।" .. श्रीमान् लोकाशाह (पृ. ७५-७२-७३) __ इस प्रकार ऐतिहासिक अन्वेषण से स्पष्ट है कि लोकाशाह के समय में पुनरुद्धार की आवश्यकता थी। - आगे लेखकश्री ने स्थानकवासी के मुख्य उद्देश्य क्या - क्या है ? उसमें आगम विपरीत कोई भी प्ररुपणा नहीं, आगम विपरीत कोई भी उपकरण रिवाज रुप में नहीं रखना वगैरह - लिखा है जो केवल बकवासमात्र है - मुहपत्ती मुंह पर २४ घंटे बांध कर फिरना, लंबा जोहरण वगैरह अनेक बातें आगम विपरीत है देखिये -पट्टावली पराग पृ. ४७१ - “लोका के अनुयायियों में प्रचलित सेंकडों ऐसी बातें हैं जो ३२ आगमों में नहीं है और उन्हें वे सच्ची मानते है, तब कई बातें उनमें ऐसी भी देखी जाती हैं जो मान्य आगमों से भी विरुद्ध है, इसका कारण मात्र इस समाज में वास्तविक तलस्पर्शी ज्ञान का अभाव है । (इतिहासवेत्ता विद्धदर्य पं. श्री कल्याणविजयजी म.सा.) 54

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