Book Title: Sanch Ko Aanch Nahi Author(s): Bhushan Shah Publisher: Chandroday ParivarPage 45
________________ G000 “सांच को आंच नहीं" (0960--2 देहादि णिमित्तं पि हु जे, कायवहम्मि तह पयस॒ति । जिणपूआकायवहम्मि, तेसिमपवत्तणं मोहो । (श्रावकप्रज्ञप्ति गाथा नं. ३४९) . भावार्थ : शरीर, व्यापार खेती आदि सांसारिक कार्यो में तथा संतसतियों की जन्म-जयन्तियाँ, श्मशान यात्रा, किताबें छपवाना, मर्यादा महोत्सव, दीक्षा महोत्सव, चातुर्मास में वाहन द्वारा संत-सतियों के दर्शनार्थ जाना, बडे-बडे स्थानक, सभा-भवन, समता भवन बनवाना आदि धार्मिक कार्यों में हिंसा करते ही हैं, लेकिन जीवहिंसा का बहाना बनाकर जो लोग समकित और मोक्ष देनेवाली जिनपूजा नहीं करते है । यह उनका मिथ्यात्व है ! मोह है !! मूर्खता है !!!! पूर्वाचार्यों की वाणी को मानने वाले सपूत या अवहेलना करें वह सपूत ? निर्णय स्वयं करे। .. इसी बात को एकावतारी १४४४ ग्रंथों के प्रणेता, विदेश के अनेक महाविद्धानों द्वारा प्रमाणित किये गये, ऐसे हरिभद्रसूरिजी म.सा. ने अपने पंचाशक महाग्रंथ के चतुर्थ पंचाशक में भी कहीं है। दिगंबरों में भी उनके पूर्वाचार्यों ने भी इस वस्तु को स्वीकारा है। देखिये : "थोडा आरंभ होते हुए उसकी भावना आरंभ करने की नहीं है । लेकिन आरंभ के बिना कोई भी गृहस्थ कार्य नहीं होता । द्रव्य से पूजा करनेवालों को थोडा आरंभ होता ही है, उसके बदले में महान् पुण्य भी होता है, ऐसा स्वयंभू स्तोत्र में लिखा है।" ("एक ही रास्ता” पृ.४४ लेखक धवलसागरजी) श्वेतांबर - दिगंबरों में सभी पूर्वाचार्य एकमत से इस वस्तु को स्वीकारते हैं । केवल लेखक महाशय जैसे ही इसमें दोष बताते है । लेखक महाशयने आगे - पीछे अपशब्दों की लंबी प्रस्तावना करके संस्कृत-प्राकृत के अनभिज्ञ पाठकों को उल्लु बनाने के लिए पृ. १३ और पृ. २४ पर साधु संबांधि महानिशीथ सूत्र के पाठ दिये हैं । साधु के लिये उपर कहे मुताबिक मंदिर, जिनपूजा आदि सावद्य होने से वर्जित है । पृ. १३, पृ. २४ पाठों में साधु उसमें प्रवृत्ति करें उससे स्पष्ट ही उनके लिये वह दोष का 41Page Navigation
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