Book Title: Samykatva Saptati
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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सम्य०
स०टी०
॥२१४॥
सम्यग्दर्शनं, एतद्विना चारित्रस्यास्थिरत्वमिति पञ्चमी भावना । 'सुअसील'त्ति श्रुतं-द्वादशाङ्गीरूपं दृष्टिवादः| (दान्तं) शीलं-सर्वसावधव्यापार निवारणप्रवणा क्रिया, कोऽभिप्रायः?-सम्यग्ज्ञानचारित्रे परस्परसंवलिते एव परमार्थसाधके नासंयुक्ते, यदागमः-"हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणओ किया। पासंतो पंगुलो दडो, धावमाणो य अंधलो ॥१॥ संजोगसिद्धीइ फलं वयंति, नहु एगचक्केण रहो पयाइ । अंधो य पंगू य वणे समिचा, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा ॥२॥” एतयोः श्रुतशीलयोर्यो मनोज्ञः-शिवसुखाखादसम्पादकत्वात्सर्वोत्तमो रसो निस्यन्दस्त 'दर्शनभाजने कारकरोचकदीपकाद्याधारसम्यक्त्वपात्रे 'धरति' स्थापयतीति षष्ठी भावनेति गाथात्रयार्थः॥५६॥ 8|॥ ५७ ॥ ५८ ॥ भावार्थस्तु चन्द्रलेखाकथानकगम्यः, स चायम्
हिययाणंदणचंदणफुल्लिरफुल्लेहि वासीअदियंतो । भारहसिरीइ सेहरसारिच्छो अस्थि मलयगिरी ॥१॥ तरुवरकयसिरछत्तो निब्भरचामरसएहि सोहिल्लो । इयरसिहरीसु जो उण रायसिरिं पयडए सययं ॥२॥ तस्स |सिहरिस्स सिहरे वडतरुणो उवरि कीरवरमिहुणं । नेहपरं परिवसइ तमालदलकोमलच्छायं ॥३॥ केणवि खयरण कुऊहलण तरलियमणेण तं मिहुणं । दट्ठणं संगहियं चंचुओ नडियअरुणपहं ॥ ४ ॥ नेउं तं नियगेहे मणिपंजरसंठियं पढावइ । सयलकलाओ छइंसणाण तत्ताणि य जहिच्छं ॥५॥ निचं खयरो मिहुणं तं सह गहिऊण भमइ भुवर्णमि । तविरहे उण सवं जयंपि सुन्नं व मन्नेइ ॥ ६ ॥ अह तं चारणमुणिणा पडिबोहिय खेयराउ
VACARA
॥२१॥
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