Book Title: Samykatva Saptati
Author(s): Lalitvijay
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

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Page 482
________________ सम्य० टी. ॥२२८॥ निक्खित्तो पिक्खिउंपि न मिययपरियणं लहइ, तहा एएण दिटुंतेण तुम्ह पिया कम्मपरवसा नरयाउ न पाव नीसरिउं, भूवइणा भणियं-जइ एवं ता मह माया तुम्ह धम्मरत्ता जीवदयानिरया अवस्सं सग्गं गया हविस्सइ, सा य आगंतूण पावनिरयं मं किं न बोहेइ, तओ भगवया वागरियं-भो देवाणुप्पिया! सग्गं गया जीवा सहावसोहग्गसुंदरअमरसुंदरीभोगदुल्ललिया बहुपयाररिद्धिभरवक्खित्तचित्ता असंपन्नपओयणा अणहीणमणुयकजा चउसयपंचसयजोयणुल्लसिरितिरियलोयदुरभिग्गंधसंतद्वा तित्थेसरपंचकल्लाणगे महरिसितवाणुभावं जम्मंतरनेहं वा मुत्तूण पाएण न समागच्छंति मणुयलोयं । तओ रण्णा वुत्तं-भयवं! मए जीवस्स पिक्खणकए एगो चोरो दोखंडीकओ, तत्थ न दिट्ठो कोऽवि नीहरंतो महब्भूए चइवि अन्नो जीवो, मुणिवरेणावि भणियं-राय ! केणवि अरणियकर्ट बहुसो द खंडीकयं, तस्स मझे न पलोइओ सबहावि अग्गी, अवरेण महणदारुणा महणजुत्तीए उढिओ दिट्ठो हववाहो । जइ मुत्तिधरा अवि पयत्था विजमाणावि चम्मचक्खूहिं न पिक्खिजंति ता सरीराइविरहियस्स अम्मुत्तस्स जी-3 वस्साणवलोयणे का विपडिवत्ती?, पुणो रण्णा साहियं-भयवं! एगो चोरो जीवंतो लोहमंजूसाए पक्खित्तो, साय जउपमुहदवेहि समंतओ नीरंधीकया, कियंतेऽवि समए समइकंते चोरो तम्मज्झट्ठिओ चेव विवन्नो, जइ कोऽवि सरी २२८॥ स्रवइरित्तो जीवो हुजा ता नूणं पलोइज्जइ, तन्निस्सरणमग्गो मंजूसाए न दिट्ठो, तम्हा नत्थि जीवो, तओ भगवया ।" भणियं-एगमि पुरे कोऽवि संखवायगो हुत्था, तस्सेवंविहलद्वी-दूरेवि संखं पूरंतो कण्णसन्निहाणे चेव लक्खियइ, Hann Education Interational For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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