Book Title: Sammaisuttam Author(s): Siddhasen Divakarsuri, Devendra Kumar Jain Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 5
________________ सम्पइतं श्वेताम्बर मान्यता के प्रतिकूल हैं; क्योंकि श्वेताम्बरीय 'आचारांग नियुक्ति' में बर्द्धमान को छोड़कर शेष तेईस तीर्थंकरों के तपःकर्म को निरुपसर्ग वर्णित किया है" । अतः 'कल्याणमन्दिरस्तोत्र' के रचयिता सिद्धसेन न हो कर निश्चय हो कुमुदचन्द्र नाम के भिन्न आचार्य हैं। J यह बताने के लिए केवल एक ही प्रमाण दिया जाता है कि 'न्यायावतार' के रचयिता आचार्य सिद्धसेन थे। पं. सुखलाल जी के शब्दों में प्रभावक चरित' के विवरण के अनुसार इसकी भी रचना 32 द्वात्रिंशिकाओं में से एक थी, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है। पुरानी रचना में इसका उल्लेख किया गया है कि 32 द्वात्रिंशिकाएँ हैं, किन्तु यह बताने के लिए कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है कि 'न्यायावतार' उनमें से एक था। इसलिए यह निश्चित नहीं हैं कि यह वही सिद्धसेन हैं जिन्होंने 'सन्मतिसूत्र' की रचना की थी। इसके अतिरिक्त प्रबन्धों में कई अन्तर्विरोध हैं, जिनके कारण उन पर विश्वास नहीं किया जा सकता। यद्यपि यह कथन सत्य है। कि 'ययान्ताए पर आ की रचनाओं का अत्यन्त प्रभाव है, किन्तु यह भी सत्य है कि ग्रन्थ की रचना 'सम्मतिसूत्र' की रचना से कई शताब्दियों के पश्चात् हुई। यह भी निश्चित है कि 'न्यायावतार' पर केवल समन्तभद्र का ही नहीं, किन्तु आचार्य पात्रकेसरी तथा धर्मकीर्ति जैसे विद्वानों का भी अन्यून प्रभाव रहा है। डॉ. हर्मन जेकोबी के विचारों का निर्देश करते हुए पं. जुगलकिशोर मुख्तार ने ठीक ही कहा है कि 'न्यायावतार में प्रतिपादित प्रत्यक्ष तथा अनुमानादिक के लक्षण बौद्ध आचार्य धर्मकीर्ति के 'न्यायबिन्दु' में निर्दिष्ट लक्षणों के निरसन हेतु रचे गए। आ. धर्मकीर्ति का समय सन् 625-50 ई. है ।' सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र जी ने 'न्यायबिन्दु' और 'न्यायावतार' में वस्तु साम्य तथा शब्द साम्य का निर्देश करते हुए स्पष्ट रूप से बताया है कि 'न्यायावतार' परवर्ती रचना है। उनके ही शब्दों में "अतः धर्मकीर्ति के 'न्यायबिन्दु' के साथ के साम्य तथा प्रमाण के लक्षण में आगत 'बाधवर्जित' पद से तथा अन्य भी कुछ संकेतों से 'न्यायावतार' धर्मकीर्ति और कुमारिल के पश्चात् रचा गया प्रतीत होता है और इसलिये यह उन सिद्धसेन की कृति नहीं हो सकता, जो पूज्यपाद देवनन्दि के पूर्ववर्ती हैं।'' इन प्रमाणों से निश्चित हो जाता है कि 'न्यायावतार' के लेखक ने बौद्ध साहित्य को सम्मुख रख कर ऐसी परिभाषाओं तथा लक्षणों का निर्माण किया और उनमें इस प्रकार की शब्दावली का ୫ 1. सव्वेसि तथी कम्मं निरुवसम्गं तु यणियं जिणाणं नवरं तु वक्षमाणस्स सोवसग्गं पुणेयब्वं ॥१- आचारांगनियुक्ति गा. 276 = मुख्तार, पं. जुगलकिशोर 'युगवीर' पुरातन जैनयाक्य सूची, प्रथम विभाग प्रस्तावना, पृ. 3:27-28 से उद्धृत | 2. पं सुखलाल संघर्थी, पं. बेचरदास दोशी सन्मति तर्क (अंग्रेजी अनुवाद), परिचय, 1987 पृ. 49 3. मुख्तार, जुगलकिशोर पुरातन जैनवाक्य सूची, प्रथम विभाग, दिल्ली, 1950, पृ. 12 4. शास्त्री, पं. कैलाशचन्द्र जैन न्याय, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, 1965, प्रथम संस्करण, पृ. 21 1 1 : 1 F !Page Navigation
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