Book Title: Samdarshi Acharya Haribhadra
Author(s): Jinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
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समदर्शी ग्राचार्य हरिभद्र
ऐसी प्रथा चली आती है कि किसी भी एक जाति के लोग एक ही मुहल्ले टोले मे रहते है, इसी कारण वैशाली के माहरणकुण्ड खत्तियकुण्ड, वाणिजगाम जैसे उपनगर या टोले प्रसिद्ध है, र जहा, 'वाह्मरण ग्राम' का उल्लेख आता है वहा विद्वान् उसके वारे मे ऐसा खुलासा करते आये है कि उस गाव मे ब्राह्मणो का प्राधान्य होता है तथा दूसरे वर्णों के लोग गौण रूप से रहते है । आज भी उदयपुर, जोधपुर, जयपुर जैसे शहरो ब्राह्मणो के मुहल्ले 'ब्रह्मपुरी' के नाम से पहचाने जाते है ।१६
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समय
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हरिभद्र के समय का प्रश्न विवादास्पद था । प्राचीन उल्लेखो के अनुसार ऐसा माना जाता था कि हरिभद्र वीर सवत् १०५५ अर्थात् वि. सं ५८५ मे स्वर्गवासी हुए, परन्तु इस वारे मे अन्तिम निर्णय ग्राचार्य श्री जिनविजयजी ने अपने तद्विपयक निबन्ध मे कर डाला है | यह निर्णय प्रत्येक ऐतिहासिक ने मान्य रखा है । तदनुसार हरिभद्र का जीवन काल प्राय वि. सं. ७५७ से ८२७ तक का का जाता है । इस निर्णय पर आने के अनेक प्रमारगो मे से एक खास उल्लेखनीय प्रमाण उद्योतन- सूरि उपनाम दाक्षिण्य - चिह्नकृत कुवलयमाला की प्रशस्ति - गाथाएँ है | दाक्षिण्यचिह्न ने अपनी कुवलयमाला की समाप्ति का समय एक दिवस न्यून शकसंवत् ७०० ग्रर्थात् शक-सवत् ७०० की चैत्र कृष्णा चतुर्दगी लिखा है और उन्होने अपने प्रमाण - न्यायशास्त्र के विद्या गुरु के रूप मे हरिभद्र का निर्देश किया है | २१ इस समय के साथ पूरी तरह से मेल खानेवाले अनेक ग्रन्थ एव ग्रन्थकारो के उल्लेख
१९ वास्तुग्रन्यो मे वर्णन के आधार पर नगर मे मुहल्ले टोलो के निर्मारण का वर्णन श्राया है, जैसे कि -
प्राग्विप्रास्त्वथ दक्षिणे नृपतय शूद्रा कुवेराश्रिता । कर्तव्या पुरमध्यतोऽपि वणिजो वैश्या विचित्रैगॄहै ॥
—मण्डनसूत्रधारकृत वास्तुराजवल्लभ, ४१८ इसके अतिरिक्त देखो 'वास्तुविद्या ' अध्याय २, २६, ३२ ॥
२०. देखो 'जैन साहित्य सशोधक' वर्ष १, अंक १ | यह निबन्ध सन् १९१९ मे
अखिल भारतीय प्राच्यविद्या परिषद् में श्राचार्य श्री जिनविजयजी ने पढा था । २१ जो इच्छइ भवविरह भवविरह कोरण वदए सुयरगो ।
समय-सय- सत्य - गुरुरणो समरमियका कहा जस्स ॥ -- कुवलयमाला पृ० ४, प० सो सिद्धन्तेण गुरु जुत्ती -सत्येहि जस्स हरिभद्दो | बहु - सत्य-गथ - वित्थर - पत्थरिय - पयड - सव्वत्थो ॥
--- कुवलयमाला पृ० २८२, १०१८