Book Title: Samdarshi Acharya Haribhadra
Author(s): Jinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
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योग - परम्परा में हरिभद्र की विशेषता
ग्रन्थ के अन्तिम परिवर्धित संस्करण का अनुवाद है । यह अन्तिम परिवर्धित 'समाधिराज' नेपाल मे मूल रूप मे ही मिलता है । इसकी भाषा संस्कृत है, परन्तु 'ललित - विस्तर' र 'महावस्तु' आदि ग्रन्थो मे प्रयुक्त भाषा की तरह संस्कृत - प्राकृत मिश्र है । यह ग्रन्थ भारत मे तो उपलब्ध नही था, परन्तु गिलगिट के प्रदेश मे से एक चरवाहे के लडके को भेड बकरी चराते समय वह, दूसरे कई ग्रन्थो के साथ, मिला था । इन ग्रन्थो का सम्पादन कलकत्ता विश्वविद्यालय के सुप्रसिद्ध विद्वान् डॉ. नलिनादत्त ने किया है और विस्तृत भूमिका भी अंग्रेजी मे दी है। चीन और तिब्बत मे इस ग्रन्थ का पहले ही से जाना, वहा उसकी प्रतिष्ठा जमना, काश्मीर के एक प्रदेश मे से उसकी प्राप्ति, कनिष्क के समय तक हुई तीन धर्म संगीतियो का उसमे निर्देश, उसमे प्रयुक्त प्राकृतमिश्रित संस्कृत भाषा तथा उसमे लिया गया शून्यवाद का आश्रय - यह सब देखने पर ऐसा अनुमान होता है कि यह 'समाधिराज' काश्मीर के किसी प्रदेश मे नही तो फिर पश्चिमोत्तर भारत के किसी भाग मे रचा गया होगा ।
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समाधिराज की प्रतिष्ठा और प्रचार ऐसा होगा कि हरिभद्र के जैसे जैनाचार्य का ध्यान भी उसकी ओर आकर्षित हुआ । हरिभद्र जब सब योगशास्त्रो के आकलन की बात कहते हैं, तब उपर्युक्त कई योगाचार्यों के नाम तथा कई अज्ञात ग्रन्थो के निर्देश उनके इस कथन की यथार्थता सिद्ध करते हैं । एक हरिभद्र ही ऐसे है जिनके योग-विषयक इन दो ग्रन्थो में, अन्य किसी के योग-ग्रन्थ मे उपलब्ध न हो वैसी, ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक सामग्री मिलती है ।
जीवन के दो प्रवाह : एक भोग और दूसरा योग । प्राणिमात्र मे जो बहिर्मुख इन्द्रियानुसरणवृत्ति है उसका अनुसरण करना अनुस्रोतोवृत्ति अथवा भोगप्रवाह है, जब कि वैसी वृत्ति से उल्टी दिशा मे अन्तर्मुख होकर प्रयत्न करना योग अथवा प्रतिस्रोतोवृत्ति है । इन दो प्रवाहो या वृत्तियो के बीच की सीमा ऐसी होती है जिसमें साधक क्षरण मे भोगाभिमुख और क्षरण मे योगाभिमुख भी बनता है । योगाभिमुखता सच्चे अर्थ मे सिद्ध करनी हो तो अनेक उपायो का अवलम्बन लेना पडता है । उनमे से एक उपाय है वैराग्य । सामान्यतः वैराग्य एक ग्रावश्यक उपाय माना गया है, फिर भी उसकी समझ के बारे मे तारतम्य रहा ही है और उसके कारण वैराग्य को प्राचरण मे उतारने के अनेक मार्ग भी खोजे गये हैं । आँख, कान श्रादि इन्द्रियों को चाकपित करने वाले स्त्री, पुत्र, धन आदि है, तो इन आकर्षक पदार्थो का परित्याग ही वैराग्य है- ऐसी समझ मे से घर-बार तथा धन-धान्य आदि के त्याग का मार्ग शुरू हुआ । ऐसे त्याग के लिए उन-उन आकर्षक पदार्थों मे अनेक दोपो की कल्पना की