Book Title: Samdarshi Acharya Haribhadra
Author(s): Jinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 105
________________ योग-परम्परा में हरिभद्र की विशेषता को दूर करने का सरल और बुद्धि-गम्य मार्ग बतलाया है । परन्तु ऐसा मार्ग सूचित करते समय उनके समक्ष कई प्रश्न तो उपस्थित होते ही है । यदि तुम कहते हो इस तरह सुगत, कपिल, अर्हन् आदि सभी निर्वाण तत्त्व के ज्ञाता होने से सर्वज्ञ हैं, तो उनमे पंथ एवं उपदेश भेद कैसे घट सकता है ? इसका उत्तर देने में हरिभद्र ने अपने तार्किक बल का पूर्ण रूप से प्रयोग किया है । इस प्रश्न का उत्तर हरिभद्र तीन प्रकार से देते हैं : (१) एक तो यह कि भिन्न-भिन्न सर्वज्ञ के रूप मे माने जाने वाले महापुरुषों का जो भिन्न-भिन्न उपदेश है वह विनेय अर्थात् शिष्य अथवा अधिकारी-भेद को लक्ष्य में रख कर दिया गया है ।२६ (२) दूसरा यह कि वैसे महापुरुषो के उपदेश का तात्त्विक दृष्टि से एक ही तात्पर्य होता है, परन्तु श्रोता-जन अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार उसे भिन्न-भिन्न रूप से ग्रहण करते हैं, फलत देशना एक होने पर भी नाना-जैसी दिखाई पडती है ।२७ (३) तीसरा यह कि देश, काल, अवस्था आदि परिस्थिति-भेद को लेकर महापुरुष भिन्न-भिन्न दृष्टि-बिन्दु से अथवा अपेक्षा-विशेष से भिन्न-भिन्न उपदेश देते है, परन्तु वह मूल मे तो है सर्वज्ञमूलक ही ।२८ . हरिभद्र इतना कहकर ही विरत नहीं होते। वे कहते हैं कि शास्त्र के द्वारा प्राप्त होने वाला ज्ञान जैसे सामान्य-विषयक ही होता है, वैसे अनुमान के द्वारा प्राप्त होने वाला ज्ञान भी सामान्य-विषयक ही होता है, अत अनुमान-ज्ञान के ऊपर सम्पूर्ण आधार नही रखा जा सकता। प्रत्येक वादी अपने पक्ष को सिद्ध करने के लिए अनुमान का आश्रय लेता है और उसी को अन्तिम उपाय मानकर उस पर निर्भर रहता है । इससे हरिभद्र ने भर्तृहरि के वचन को उद्धत करके अपने वक्तव्य का समर्थन किया है कि एक अनुमान से सिद्ध वस्तुविशेष निपुण विद्वान् के द्वारा प्रयुक्त दूसरे अनुमान से ही २६. इप्टापूर्तानि कर्माणि लोके चित्राभिसन्धित । नानाफलानि सर्वाणि द्रष्टव्यानि विचक्षणः ॥ चित्रा तु देशनैतेषा स्याद्विनेयाऽनुगुण्यत । यस्मादेते महात्मानो भवव्याधिभिषग्वरा.॥ -योगदृष्टिसमुच्चय, ११३ और १३२. २७. एकापि देशनैतेषा यद्वा श्रोतृविभेदतः । अचिन्त्यपुण्यसामर्थ्यात्तथा चित्राऽवभासते ।। योगदृष्टिसमुच्चय, १३४ २८ यद्वा तत्तन्नयापेक्षा तत्तत्कालादियोगत । ऋषिभ्यो देशना चित्रा तन्मूलपापि तत्त्वत ॥ -योगदृष्टिसमुच्चय, १३६.

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