Book Title: Samdarshi Acharya Haribhadra
Author(s): Jinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
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योग-परम्परा में हरिभद्र की विशेषता अपनी पात्रता और आदर्श के अनुसरण की अनिवार्यता-इन सभी तत्त्वों का मध्यस्थ भाव से मेल बैठाया है।
(२) विश्वसर्जन के कारण के रूप मे क्या मानना-इस बारे मे अनेक प्रवाद पुरातन काल से प्रचलित हैं। काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, भूत और पुरुष आदि तत्त्वो मे से कोई एक को, तो कोई दूसरे को कारण मानता है। ये प्रवाद श्वेताश्वतर उपनिषद् (१२) मे तो निर्दिष्ट है ही, परन्तु महाभारत: ६ आदि अनेक ग्रन्थो मे भी इनका निर्देश है। सिद्धसेन दिवाकर ने इन प्रवादों का समन्वय करके सबकी गणना सामग्री के रूप मे कारण कोटि मे की है। परन्तु ये सभी चर्चाएं सृष्टि के कार्य को लक्ष्य मे रख कर हुई है, किन्तु हरिभद्र ने योगबिन्दु मे इसकी जो चर्चा की है वह तो साधना की दृष्टि से है । उन्होने अन्त मे सामग्रीकारणवाद को स्वीकार करके कहा है कि ये सभी वाद ऐकान्तिक है, परन्तु साधना की फलसिद्धि मे काल, स्वभाव, नियति, दैव, पुरुषकार इत्यादि सभी तत्त्वो को, अपेक्षा-विशेष से, स्थान है ही ऐसा कहकर उन्होने इन सभी आपेक्षिक दृष्टियो का विस्तार से स्पष्टीकरण भी किया है।
(३) भवाभिनन्दिता या भोगरस का नशा जब उतरने लगता है, तभी योगाभिमुखता का बीजवपन होता है-यह बात उपस्थित करते हुए हरिभद्र ने अपने विचार के समर्थन मे साख्याचार्य गोपेन्द्र के मन्तव्य का निर्देश करके कहा है कि गोपेन्द्र जैसे साख्याचार्य भी शब्दान्तर से यही बात कहते हैं। यह शब्दान्तर यानी पुरुष पर के प्रकृति के अधिकार की निवृत्ति । पुरुष का दर्शन न होने तक ही प्रकृति का सर्जनबल रहता है, उसका दर्शन होते ही वह सर्जन-कार्य से निवृत्त होती है। यह निवृत्ति ही उसकी मोक्षाभिमुखता है ।४२ हरिभद्र साख्य एवं जैन परिभाषा की तुलना करते हुए
३६ कालवाद के लिए 'महाभारत' गत शान्तिपर्व के अध्याय २५,२८,३२,३३, आदि;
यदच्छावाद के लिए उसी में अध्याय ३२, ३३; स्वभाववाद के लिए भी उसीमे
अध्याय २५ । विशेष के लिए देखो 'गणधरवाद' प्रस्तावना पृ ११३-७। ४०. देखो 'सन्मतितर्क' काण्ड ३, गाथा ५३ और उसकी टीका के टिप्पण। ४१ देखो 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' श्लोक १६४-६२, 'योगबिन्दु' श्लोक १९७, २७५,
२६२, ३१३ । ४२ देखो इसी व्याख्यान की पादटीप ६, तथा
एव लक्षणयुक्तस्य प्रारम्भादेव चाप'. । योग उक्तोऽस्य विद्वद्भिर्गोपेन्द्रेण यथोदितम् ।। योजनाद् योग इत्युक्तो मोक्षेण मुनिसत्तम । स निवृत्ताधिकाराया प्रकृती लेशतो ध्रुव ॥
-योगविन्दु २००-१