Book Title: Samdarshi Acharya Haribhadra
Author(s): Jinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 96
________________ समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र कहना चाहता हूँ वही वस्तु गोपेन्द्र भी कहते है । गोपेन्द्र के कथन के उद्धरण पर मे । यह तो निश्चित है कि वे एक माख्य-योगाचार्य है । हरिभद्र के ग्रन्थ के अतिरिक्त दूसरे किसी आवार ने इन साख्याचार्य का नाम अथवा अवतरण आज तक ज्ञात नहीं है । कालातीत' नामक एक अन्य योगाचार्य का भी उन्होने निर्देश किया है और उनका वचन उद्धृत करके अपने विचार के साथ उसकी तुलना भी की है। कालातीत किस परम्परा के होगे यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, परन्तु 'अतीत' शब्द का सम्बन्ध देखने से गायद वे शैव, पाशुपत अथवा अवधूत जैसी किसी परम्परा के होगे, ऐसी कल्पना होती है । उन्होने एक स्थान पर 'समाधिराज ८ पद का उल्लेख किया है । 'समाधि' के साथ 'राज' पद को देखकर उसके अज्ञात टीकाकार को ऐमा भासित हुया कि 'समाधिराज' अर्थात् सव समाधियो मे अन्तिम और मुकुट के जेसी प्रधान समाधि। परन्तु उपलब्ध योग-साहित्य के स्वल्प परिचय से मुझे ऐसा जात होता है कि हरिभद्र द्वारा प्रयुक्त 'समाधिराज' पद एक ग्रन्थविशेष का वोवक है । वह ग्रन्थ 'समाधिराज' के नाम से प्रसिद्ध है तथा अतिप्राचीन है। इस ग्रन्थ का तथा इसकी प्राप्ति का इतिहास अत्यन्त रोमाचक है । यह ग्रन्थ कनिष्क के समय जितना तो प्राचीन है ही। चीनी भाषा मे भिन्न-भिन्न समय मे इसके तीन अनुवाद हुए हैं और वे मिलते भी है। इसका चौथा अनुवाद भोट-भापा मे हुआ है । मूल ग्रन्थ परिमाण में छोटा था, परन्तु धीरे-धीरे वह बढ़ता गया है । भोट-भापा मे जो अनुवाद है वह तो मूल तथा चान्यरपि ह्येतद्योगमार्गकृतश्रमं । मगीतमुक्तिभेदेन यद् गौपेन्द्रमिद वच ॥ अनिवृत्ताधिकाराया प्रकृतौ सर्वथैव हि । न पुमस्तत्त्वमार्गेऽम्मिजिज्ञासाऽपि प्रवर्तते ।। -योगविन्दु, १००-१ माध्यस्थ्यमवलम्व्यवमंदम्पर्यव्यपेक्षया । तत्त्व निल्पणीय स्यात् कालातीतोऽप्यदोऽब्रवीत्।। -योगविन्दु, ३०० समाधिराज इत्येतत् तदेतत्तत्त्वदर्शनम् । अाग्रहच्छेदकार्येतत् तदेतदमृतं परम् ।। योगविन्दु ४५६ है 'समाधिराज प्रधान समाधि.'-योगविन्दुटीका, ४५६ योगविन्दु ( श्लोक ४५८ ) मे नरात्म्यदर्शन मे मुक्ति माननेवाले किसी अन्य की चर्चा के प्रमग मे 'समाधिराज' (श्लोक ४५९) का उल्लेख आता है, अत वहाँ 'समाधिराज' अन्य ही हरिभद्र को विवक्षित है। 'समाधिराज' मे नैरात्म्यदर्शनकी चर्चा है। देखो 'समाविराज' परिवर्त ७, श्लोक २५-२६ ।

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