Book Title: Samdarshi Acharya Haribhadra
Author(s): Jinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 31
________________ व्याख्यान दूसरा दर्शन एवं योग के सम्भवित उद्भवस्थान- उनका प्रसारगुजरात के साथ उनका सम्बन्ध- उनके विकास में हरिभद्रसूरि का स्थान इस व्याख्यान मे समाविष्ट होनेवाले चार मुद्दो पर हम अनुक्रम से विचार करेगे। इनमे से पहला मुद्दा है - दर्शन एवं योग के सम्भवित उद्भवस्थान । उद्भवस्थान का प्रश्न हमे अज्ञात अतीतकाल तक ले जाता है । इसका कोई निर्विवाद और अन्तिम उत्तर देने का कार्य चाहे जैसे समर्थ अभ्यासी के लिए भी सरल नही है । इसके अलावा, इसका उत्तर सोचने और पाने मे साप्रदायिक वृत्ति भी कुछ बाधक होती है। सामान्यतः मानव-मानस परम्परा से ऐसा निर्मित होता आया है कि वह उसे विरासत में मिली हुई सास्कृतिक एवं धार्मिक भावना को दूसरे की वैसी भावना की अपेक्षा विशेष समुन्नत और पवित्र मानने की ओर अभिमुख होता है, फलत. वह उत्तराधिकार में प्राप्त अपनी वैसी सास्कृतिक एवं धार्मिक भावना को हो सके उतनी प्राचीनतम और एकमात्र मौलिक मानने का प्राग्रह रखता है। भारतीय धर्म परम्परामो के दृष्टात से यह बात स्पष्ट करनी हो तो हम यहा तीन वादो का उल्लेख कर सकते हैं- (१) मीमासक का वेद-विषयक अपौरुषेयत्ववाद, (२) न्याय-वैशेपिक जैसे दर्शनो का ईश्वरप्रणीतत्ववाद और (३) आजीवक एवं जैन जैसी परम्परागो का सर्वज्ञप्रणीतत्ववाद । ये वाद असल मे तो ऐसी भावनायो मे से उत्पन्न एव विकसित हुए है कि उस-उस परम्परा के शास्त्र और उनमे आई हुई दार्शनिक एव योग परम्परा खुद उनकी अपनी ही है और उसमे जो कुछ है वह या तो अनादि और सनातन है, या ईश्वरकथित होने से उनमे मानव बुद्धि का स्वतन्त्र प्रदान नही है, या फिर सर्वज्ञप्रणीत होने से वह एक सम्पूर्ण व्यक्ति के पुरुषार्थ का ही परिणाम है । अपनी-अपनी धर्म-परम्परा के प्रति मानव-मन असाधारण आदरभाव रक्खे और उसकी ओर सहज पवित्रता की श्रद्धा रक्खे, तब तक तो वे वाद सत्य-शोधन मे खास बाधक नहीं होते, परन्तु जब जिज्ञासु संशोधक व्यक्ति वस्तुस्थिति जानना चाहता है और प्रयत्न करता है, तब वे वाद बहुत बडा विघ्न खडा करते है। साधारण अनुयायी

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