Book Title: Samdarshi Acharya Haribhadra
Author(s): Jinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 33
________________ दर्शन एव योग के विकास मे हरिभद्र का स्थान [१६ दिशा मे प्रोत्साहक हो सके ऐसा है । यह सच है कि सम्प्रदाय की स्थापना होने पर सुगत के शिष्यों ने भी उन्हे धीरे-धीरे सर्वज्ञ बना दिया २ और उनके विचार प्राचार मानो स्वत. पूर्ण हो ऐसी श्रद्धा परम्पराओ मे निर्मित की, तथापि स्वयं बुद्ध की वृत्ति तो सर्वदा ही सब प्रकार के पूर्वाग्रहो से विमुक्त होकर सोचने-समझने की रही है। बुद्ध पूर्ण श्रद्धालु और फिर भी तर्कप्रधान थे; अत. जो जो वस्तु बुद्धि एव तर्क की कसौटी पर पूरी न उतरे उसे वे अलग हटा देते थे। उनकी इस वृत्ति का आज अनेक गुना विकास हुआ है । जब से विज्ञान ने अपनी कलाएं विकसित की और पंख पसारे तथा उसके साथ ही इतिहास एवं तुलना की दृष्टि खिली, तब से सशोधन के अनेक नये नये प्रकार और मार्ग अस्तित्व मे आये है । पुरातत्वीय अवशेष, मानववंश-विद्या, मानवजाति-शास्त्र, मानव-समाज एवं उसकी सस्कृति का शास्त्र तथा भाषाविज्ञान जैसे क्षेत्रो मे इतना अधिक कार्य हुआ है और अब भी हो रहा है कि उनके द्वारा उपलब्ध होनेवाली प्रत्यक्ष जानकारी पर से जो जो अनुमान किए गए हैं उनमे से अधिकाश अनुमान विद्वानो मे सर्वसम्मत से हो गये हैं । अत वैमे अनुमानो की अवगणना करके ऊपर कहे गये प्राचीन वादो की कल्पना-सृष्टि पर सर्वथा निर्भर रहना इस युग मे अब शक्य ही नही है । इस दृष्टि से जब हम वैज्ञानिक पद्धति का अनुसरण करनेवाले इतिहास का अवलम्बन लेकर विचार करते है, तब दर्शनो की तथा योग की परम्परा के सम्भवित उद्भवस्थानो के बारे मे कुछ अस्पष्ट और फिर भी सच्चा प्रकाश हमे प्राप्त होता है । यह भारतवर्ष लम्बे समय से आर्यदेश तथा हिन्द के नाम से विख्यात है, परन्तु 'आर्य' एवं 'हिन्द' का मानाई और व्यापक पद प्राप्त करने मे उसे अनेक सहस्र वर्षों की रासायनिक प्रक्रिया मे से गुजरना पडा है । आर्यवर्ग-जिसका वेद के साथ निकट का सम्बन्ध था वह वर्ग असल मे इस देश का ही था अथवा बाहर से इस देश मे आकर वसा था इसके विषय मे मतभेद है, परन्तु बहुमत एव बहुत से ठोस तथ्य बाहर से आकर उसके यहा बसने का समर्थन करते है , फिर भी इस जगह तो इस प्रश्न को एक ओर रखकर ही विचारना ठीक होगा। वैदिक आर्य असल यहा २ तत्सम्भव्यपि सर्वज्ञ सामान्येन प्रसाधित । तल्लक्षणाविनाभावात् सुगतो व्यवतिष्ठते ।। -तत्वसग्रह, श्लो ३३३६ तथा उसके आगे ३ देखो 'Vedic Age' Book III. Aryans in India, Ch x- The Aryan Problem

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