Book Title: Samdarshi Acharya Haribhadra
Author(s): Jinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
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दार्शनिक परम्परा मे प्राचार्य हरिभद्र की विशेपता [४३ योग्य व्योरा विशेप उपलब्ध नही होता, परन्तु राजशेखर ने कुछ तो अवलोकन से
और कुछ श्रवणपरम्परा से रसप्रद तथा संशोधक और ऐतिहासिक दृष्टि से उपयोगी हो सके ऐसी खास-खास ज्ञातव्य बातों का भी सन्निवेश किया है । राजशेखर ने जिन वातो का उल्लेख किया है वे आज यद्यपि विशेप परीक्षण की अपेक्षा रखती हैं, फिर भी उनमे बहुत सत्याश भासित होता है। ये बाते जिज्ञासा-प्रेरक होने से गुणरत्न ने उनका उपयोग हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय की विशद व्याख्या मे किया है, गुणरत्न ने यत्र-तत्र उनमे कुछ सुधार और दूसरी बातो का भी समावेश किया है। जो जो बाते राजशेखर ने और अधिक जोडी है वे उस-उस दर्शन के लिंग, वेष, प्राचार, गुरु
और ग्रन्थ आदि के बारे मे है। इस दृष्टि से विचार करे तो ऐसा कहना चाहिए कि हरिभद्र के पड्दर्शनसमुच्चय की अपेक्षा राजशेखर का समुच्चय विशेष उपादेय है । हरिभद्र जैन है, तो राजशेखर भी जैन ही है । साधु पदधारी होते हुए भी दोनो साम्प्रदायिक खण्डन-मण्डन के सस्कार तो रखते ही है। फिर भी, दूसरी तरह से विचार करे तो, हरिभद्र का छोटा भी ग्रन्थ राजशेखर के विस्तृत ग्रन्थ की अपेक्षा विशेष अर्थपूर्ण लगता है । वह अर्थ यानी कर्ताकी उदात्त दृष्टि । भारतीय दार्शनिकोमे हरिभद्र ही एक ऐसे हैं, जिन्होने अपने ग्रन्थकी रचना केवल उन-उन दर्शनो के मान्य देव और तत्त्व को यथार्थ रूपमे निरूपित करने की प्रतिपादनात्मक दृष्टि से की है, नही कि किसी का खण्डन करने की दृष्टि से, जबकि उन्ही के अनुगामी राजशेखर वैसी उदात्तता नही दिखला सके है । चार्वाक कोई दर्शन नही है-ऐसा विधान तो राजशेखर करते ही हैं, परन्तु साथ ही अन्त मे चार्वाक दर्शन का पूर्वप्रचलित ढंग से खण्डन भी करते हैं । राजशेखर हरिभद्र के ग्रन्थ का अनुसरण करे और फिर भी हरिभद्र से अलग पडकर चर्वाक को दर्शन कोटि से बाहर रखे तथा दूसरे किसी दर्शन का नही और केवल चार्वाकका ही प्रतिवाद करे, तब वह प्रतिवाद, परम्परागत होने पर भी, लेखक की दृष्टि की तटस्थता मे कुछ कमी सूचित करता है।
हरिभद्र प्रारम्भ मे ही छ दर्शनो का निरूपण करने की प्रतिज्ञा करते है । प्रारम्भ के छ. दर्शनो के नामोल्लेख मे चार्वाकका निर्देश नहीं है, परन्तु इन छहो का निरूपण करने के उपरान्त वह कहते है कि न्याय एवं वैशेषिक ये दो दर्शन भिन्न नही है ऐसा मानने वाले की दृष्टि से तो आस्तिक-दर्शन पाँच ही हुए, अत की गई प्रतिज्ञा के अनुसार छठे दर्शन का निरूपण आवश्यक है, तो यह निरूपण चार्वाकको
६ 'नास्तिक तु न दर्शनम्' श्लोक ४। ७ देखो श्लोक ६५ से ७५ ।