Book Title: Samdarshi Acharya Haribhadra
Author(s): Jinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 71
________________ दार्शनिक परम्परा में प्राचार्य हरिभद्र की विशेषता [५७ खण्डनपटु है, किन्तु हरिभद्र तो विरोधी मत की तक-पुरस्सर समीक्षा करने पर भी सम्भव हो वहां कुछ सार निकाल कर उस मत के पुरस्कर्ता के प्रति सम्मानवृत्ति भी प्रदर्शित करते है। क्षणिकवाद, विज्ञानवाद और शून्यवाद इन तीन बौद्ध वादों की समीक्षा करने पर भी हरिभद्र इन वादों के प्रेरक दृष्टिबिन्दुओ को अपेक्षा-विशेष से न्याय्य स्थान देते है और स्वसम्प्रदाय के पुरस्कर्ता ऋषभ, महावीर आदि का जिन विशेषणों से वे निर्देश करते है वैसे ही विशेषणो से उन्होने बुद्ध का भी निर्देश किया है और कहा है कि बुद्ध जैसे महामुनि एवं अर्हत् की देशना अर्थहीन नही हो सकती।३३ ऐसा कह कर उन्होने सूचित किया है कि क्षणिकत्व की एकांगी देशना आसक्ति की निवृत्ति के लिए ही हो सकती है, इसी भांति बाह्य पदार्थो मे आसक्त रहने वाले तथा आध्यात्मिक तत्त्व से नितान्त पराड्मुख अधिकारियो को उद्दिष्ट करके ही बुद्ध ने विज्ञानवाद का उपदेश दिया है३५ तथा शून्यवाद का उपदेश भी उन्होने जिज्ञासु अधिकारीविशेष को लक्ष्य में रख कर ही दिया है, ऐसा मानना चाहिए।३६ कई विज्ञानवादी और शून्यवादी बौद्ध आचार्यों के सामने इतर बौद्ध विद्वानो की ओर से प्रश्न उपस्थित किया गया कि तुम विज्ञान और शून्यवाद की ही बाते करते हो, परन्तु बौद्ध पिटको मे जिन स्कन्ध, धातु, आयतन आदि बाह्य पदार्थों का उपदेश है उनका क्या मतलब ? इसके उत्तर मे स्वयं विज्ञानवादियो और शून्यवादियो ने भी अपने सहबन्धु बौद्ध प्रतिपक्षियो से हरिभद्र के जैसे ही मतलब का कहा है कि बुद्ध की देशना अधिकारभेद से है। जो लौकिक स्थूल भूमिका मे होते थे उन्हे वैसे ही और उन्ही की भाषा मे बुद्ध उपदेश देते थे, फिर भले ही उनका अन्तिम तात्पर्य उससे ३३ न चैतदपि न न्याय्य यतो बुद्धो महामुनि । सुवैद्यवद्विना कार्य द्रव्यासत्यं न भापते ॥ ४६६ ।। -शास्त्रवार्तासमुच्चय ३४ अन्ये त्वभिदधत्येवमेतदास्थानिवृत्तये । क्षणिक सर्वमेवेति बुद्ध नोक्त न तत्त्वत ॥ ४६४ ।। -शास्त्रवार्तासमुच्चय ३५. विज्ञानमात्रमप्येवं वाह्यसगनिवृत्तये । विनेयान् काश्चिदाश्रित्य यद्वा तद्देशनाऽर्हत ॥ ४६५ ।। --शास्त्रवार्तासमुच्चय ३६ एव च शून्यवादोऽपि तद्विनेयानुगुण्यत. । अभिप्रायत इत्युक्तो लक्ष्यते तत्त्ववेदिना ॥ ४७६ ॥ -शास्त्रवार्तासमुच्चय

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