Book Title: Samdarshi Acharya Haribhadra
Author(s): Jinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
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व्याख्यान चौथा योगपरम्परामें प्राचार्य हरिभद्रकी विशेषता-१
आचार्य हरिभद्र योगसाहित्य और उसकी परम्परामे कौन-कौनसी और कितनी विशेषता लाये है इसका कुछ ख्याल आ सके इस दृष्टि से यह देखना आवश्यक है कि प्राचीन समय से यह परम्परा किस-किस तरह विकसित होती रही है और उसके साहित्य का किस रूप मे निर्माण हुआ है ।
ईसा के पूर्व लगभग आठवी शती से लेकर उत्तरवर्ती समय का ख्याल अधिक अच्छी तरह से दे सके ऐसा साहित्य तो उपलब्ध है ही। उसके पहले के समय को लेकर योगका विचार जानना हो तो कुछ अंश मे पुरातत्त्वीय अवशेष और कुछ अंश मे लोक-जीवन मे जिनकी गहरी जडे जमी है वैसी प्रथाओं तथा पौराणिक वर्णनो का आधार लेना अनिवार्य है। अतिप्राचीन काल मे 'योग' शब्द की अपेक्षा 'तप' शब्द बहुत ही प्रचलित था। ऐसा लगता है कि मानव-जीवन के साथ तप की महिमा किसी-न-किसी रूप मे संकलित रही है । इसीलिए हम देखते है कि कोई ऐसी प्राचीन, मध्ययुगीन अथवा अर्वाचीन धर्मसंस्था विश्व मे नही है कि जिसमे एक या दूसरे रूप मे तप का आदर न होता हो । सिन्धु-संस्कृति के अवशेषो मे जो नग्न प्राकृतिया मिलती हैं वे किसी-न-किसी तपस्वी की सूचक है, ऐसा सब स्वीकार करते हैं। नन्दी एवं दूसरे सहचर प्रतीको के सम्बन्ध को देखते हुए अनेक विचारक ऐसी कल्पना करते है कि वे नग्न आकृतियां महादेव की सूचक होनी चाहिये ।' इस देश मे महादेव एक योगी, तपस्वी या अवधूत के रूप में प्रसिद्ध है। पौराणिक वर्णनो मे तथा लोक-जिह्वा पर महादेव का जो स्वरूप सुरक्षित है वह इतना तो निस्सन्देह सूचित करता है कि लोक-मानस के ऊपर एक वैसे अद्भुत तपस्वी की अमिट एवं चिरकालीन छाप पड़ी हुई है। महादेव के इस लोकमानस-स्थित प्रतिबिम्ब की तुलना जब हम
१ 'इस्टर्न रिलीजन एण्ड वेस्टर्न थॉट' पृ १८ के आधार पर इस वस्तु का निर्देश श्री दुर्गाशकर शास्त्री ने किया है। देखो 'भारतीय सस्कारोनु गुजरातमा अवतरण' पृ १८; डॉ० हरिप्रसाद शास्त्री . 'हडप्पा अने मोहेजो दडो' पृ १७३; डॉ० यदुवशी · 'शवमत' पृ. ६-८; राधाकुमुद मुखर्जी • 'हिन्दू सभ्यता' पृ २३ । ।