Book Title: Samdarshi Acharya Haribhadra
Author(s): Jinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 77
________________ योगपरम्परा मे प्राचार्य हरिभद्र की विशेषता [६३ जीतने का और उसके द्वारा कोई ऐहिक या पारलौकिक सिद्धि प्राप्त करने का था; फिर भी बहुत प्राचीनकाल मे तप के ये प्रकार देहदमन की स्थूल क्रियानो से बहुत आगे विकसित नहीं हुए थे । परन्तु उनमे विचार का तत्त्व विशेष रूप से प्रविष्ट होने पर वे समझने लगे कि केवल कठोर से कठोर कायक्लेश भी उनका ध्येय सिद्ध नही कर सकता। इस विचार ने उन्हे वाक्-सयम की ओर तथा मन की एकाग्रता साधने के विविध उपायो की शोध करने की ओर भी प्रेरित किया । अनेक साधक स्थूल तप के आचरण मे ही इतिश्री मानते थे, फिर भी कई ऐसे विरल विवेकी तपस्वी भी हुए जो वैसे स्थूल तप को अन्तिम उपाय न मानकर एव उसे एक बाह्य साधन समझकर उसका उपयोग करते रहे तथा मुख्य रूप से मन की एकाग्रता साधने के उपायो मे और मनकी शुद्धि साधने के प्रयत्न मे ही अपनी समग्र शक्ति लगाते रहे। इस प्रकार तपोमार्ग का विकास होता गया और उसके स्थूल-सूक्ष्म अनेक प्रकार भी साधको ने अपनाये । जब तक यह साधना मुख्यतया तप के नाम से ही चालू रही तब तक इसकी तीन शाखाएं अस्तित्व मे आ चुकी थी। वे तीन शाखाएँ है : (१) अवधूत, (२) तापस, और (३) तपस्वी। अवधूत लोकजीवन और लोकचर्या से सर्वथा विपरीत होता है । इसका वर्णन पौराणिक साहित्य मे बचा है। उसमे भी भागवतपुराण विशेष उल्लेखनीय है । उसके पांचवे स्कन्ध के पाँचवे और छठे अध्यायो मे एक अवधूत के रूप मे नाभिनन्दन ऋषभदेव की चर्या का वर्णन आता है, और ग्यारहवे स्कन्ध मे चौबीस ३ "..."भरत धरणिपालनायाभिषिच्य स्वय भवन एवोर्वरितशरीरमात्रपरिग्रह उन्मत्त इव गगनपरिधान प्रकीर्णकेश पात्मन्यारोपिताहवनीयो ब्रह्मावर्तात् प्रवव्राज ॥ २८ ॥ जडान्धमूकवधिरपिशाचोन्मादकवदवधूतवेपोऽभिभाष्यमाणोऽपि जनाना गृहीतमौनव्रतस्तूप्णीवभूव ॥ २६ ॥ तत्र तत्र पुरग्रामाकरखेटवाटखवटशिविरव्रजघोषसार्थगिरिवनाश्रमादिष्वनुपथमवनिचरापसदै परिभूयमानो मक्षिकाभिरिव वनगजस्तर्जनताडनावमेहनष्ठीवनग्रावशकृद्रज प्रक्षेपपूतिवातदुरुक्तस्तदविगणयनेवासत्सस्थान एतस्मिन् देहोपलक्षणे सदपदेश उभयानुभवस्वरूपेण स्वमहिमावस्थानेनासमारोपिताहममाभिमानत्वादविखण्डितमना पृथिवीमेकचर परिबभ्राम ॥ ३०॥ .." परागवलम्बमानकुटिलजटिलकपिशकेशभूरिभारोऽवधूतमलिननिजशरीरेण ग्रहगृहीत इवादृश्यत ।। ३१.।। यहि वाव स भगवान् लोकमिम योगम्यादा प्रतीपमिवाचक्षाणस्तत्प्रतिक्रियाकर्म वीभत्सितमिति व्रतमाजगमास्थित शयान एवाश्नाति पिवति खादत्यवमेहति हदति स्म चेप्टमान उच्चरित मादिग्धोद्देश ॥ ३२ ॥

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