Book Title: Samdarshi Acharya Haribhadra
Author(s): Jinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
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समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र लक्षण उन्होंने अपने सभी ग्रन्थो मे दिया है। उनका अभिप्रेत लक्षण ऐसा है जो धर्मव्यापार मोक्षतत्त्व के साथ सम्बन्ध जोडे वह योग 133 उनका यह लक्षण सर्वग्राही होने से उसमे निषेधात्मक और विधेयात्मक दोनो स्वरूप समा जाते है।
योगविंशिका वसुबन्धु ने विज्ञानवाद का निरूपण करने के लिए विशिका और प्रिंशिका जैसे ग्रन्थ लिखे है। जिसका परिमाण बीस पद्यका हो वह विशिका । हरिभद्र ने ऐसी रचनाओ का अनुकरण करके विशिकाएँ लिखी है । उन्होने वैसी वीस विशिकाएँ रची है और वे सब प्राकृत मे है। इन विशिकायो का संस्कृत छाया तथा अग्रेजी सार के साथ सम्पादन प्रो० अभ्य कर ने किया है। ये विशिकाएं कॉलेज के पाठ्यक्रम मे भी थी। इन बीस विशिकागो मे से योगविंशिका सत्रहवी है। इन सब विशिकाओं के ऊपर किसी विद्वान् ने टीका लिखी थी या नहीं यह अज्ञात है, परन्तु मात्र योगविशिका के ऊपर संस्कृत टीका मिलती है, जिसके रचयिता उपाध्याय श्री यशोविजयजी है। उन्होने अपनी एक गुजराती कृति मे 'जोजो जोगनी वीशी रे'३ ४ कहकर उसका सादर उल्लेख किया है । उन्होने योगविशिका के ऊपर जो संस्कृत टीका लिखी है वह उसके मूल हार्द को अत्यन्त स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त करती है और प्रासंगिक चर्चा मे
३३ मुक्खेरण जोयणामो, जोगो सन्वो वि धम्मवावारो । परिसुद्धो विनेनी, ठाणाइगो विसेसेण ॥
-योगविशिका, १ अतस्त्वयोगो योगानां योग. पर उदाहृत । मोक्षयोजनभावेन सर्वसन्यासलक्षरण ॥
-योगदृष्टिसमुच्चय, ११ निच्छयो इह जोगो सन्नाणाईण तिण्ह सबधो । मोक्खेण जोयणामो निद्दिट्ठो जोगिनाहेहिं ।। ववहारो य एसो विनेग्रो एयकारणाण पि । जो सम्बन्धो सो वि य कारणकज्जोवयाराग्रो ।।
-योगशतक २ और ४ अध्यात्म भावना ध्यान समता वृत्तिसक्षय । मोक्षेण योजनाद् योग एप श्रेष्ठो यथोत्तरम् ।।
-योगविन्दु, ३१ पाचरात्रो के 'परमसहिता'-नामक ग्रन्थ मे भी 'योग' का अर्थ 'जोडना' किया है। देखो दासगुप्ता हिस्ट्री ऑफ इण्डियन फिलोसॉफी, भाग ३, पृ० २२ ।
जैन प्रागम मे समाधि के अर्थ मे भी योग शब्द का प्रयोग हुआ है, जैसे कि- 'वसे गुरुकुले निच्च जोगव उवहाणव'-उत्तराध्ययनसूत्र ११ १४ ॥
३४ देखो 'साडा त्रण सो गाथानु श्री सीमन्धर जिन स्तवन' ढाल १, कही ५।