Book Title: Samdarshi Acharya Haribhadra
Author(s): Jinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 86
________________ समदर्शी आचार्य हरिभद्र पार्श्वनाथ ने प्रचलित और महावीर द्वारा पुष्ट तपोमार्ग की साधना 'संवर' के नाम से प्रसिद्ध है । इस संवर के भिन्न-भिन्न अंग आगम से उपलब्ध होते हैं, परन्तु इन सभी अंग-प्रत्यंगो का मुश्लिट संकलन वाचक उमास्वाति ने अपने तत्त्वार्थाविगमसूत्र मे किया है । यह एक ही ग्रन्थ जैनतत्त्वज्ञानावलम्बी साधनामार्ग का संपूर्ण प्रतिनिधित्व करता है । बौद्ध एव जैन परम्परा के जिन जिन ग्रन्थो का ऊपर निर्देश किया है उनमे वस्तुतः पातंजल योगशास्त्र मे निरूपित चतुविध योग की प्रक्रिया का ही गन्दान्तर से अथवा परिभाषा के भेद ने निरूपण है । अतएव ऐसा कहा जा सकता है कि सभी ग्राव्यात्मिक साधनाएं किसी एक ही मूलगत प्रेरणा के आविर्भाव हैं । ૨ विक्रम की आठवी नवी गती मे होनेवाले हरिभद्र को उपर्युक्त तथा अन्य भी अध्यात्म-विषयक विशाल साहित्य का उत्तराधिकार प्राप्त हुआ था, जिसके प्रमाण उनके अपने हो योग-विपयक मूल ग्रन्थ तथा स्वोपज्ञ व्याख्याम्रो में से उपलब्ध होते हैं। हरिभद्र के पास केवल साहित्यिक उत्तराधिकार ही था ऐसा भी नही है । उनके योग-विषयक विविध विचार और प्रतिपादन के ऊपर से ऐसा निशंक प्रतीत होता है कि वे योगमार्ग के अनुभवी भी थे। इसीने उन्होंने स्वानुभव तथा साहित्यिक विरासत के बल पर योग विषय से सम्बद्ध ऐसी कृतियो की रचना की है, जो योग-परम्पराविषयक ग्रान तक के ज्ञात साहित्य में अनोखी विशेषता रखती है । तत्त्वज्ञान विषयक अपने ग्रन्थो में उन्होंने तुलना एवं बहुमानवृत्ति द्वारा जो समत्व दर्शाया है उस समत्व की पराकाष्टा तो उनके योग-विषयक ग्रन्थों मे प्रकट होती है । इसके अतिरिक्त उनके योग-ग्रन्थों में दो मुद्दे ऐसे बाते है जो उनको छोड़कर अन्य किसी की भी कृति में मैंने वैने स्पष्ट नही देखे । उनमे से पहला मुद्दा है : अपनी परम्परा को भी अभिनव दृष्टि का कदुआ घंटे पिला कर उसे सबल और सचेतन बनाना, और दूसरा मुद्दा है : भिन्न-भिन्न पंथी और सम्प्रदायों के बीच संकीर्ण दृष्टि के कारण, अपूर्ण अभ्यास के कारण तथा परिभाषाभेद को लेकर उत्पन्न होनेवाली गलतफहमी के कारण जो ग्रन्तर चला आता था और उनका संवर्धन एवं पोषण होता रहता था उसे दूर करने का यथागक्ति प्रयत्न । हरिभद्र की इस विशेषता का मूल्याकन करने के लिए उनके चार ग्रन्थों का विहंगावलोकन करना यहाँ उपयुक्त होगा । उनके इन चार ग्रन्थो मे से दो प्राकृत भाषा में है, तो दूसरे दो संस्कृत में हैं । प्राकृत भाषा में लिखित योगविगिका और योगशतक मुख्य ने जैन परम्परा की आचार-विचार प्रणालिका का अवलम्वन लिखे गये हैं, परन्तु ऐसा लगता है कि उन कृतियों के द्वारा जेनपरम्परा के मानन को विशेष उदार बनाने का उनका श्रामय होगा । इसीने उन्होने योगविकासपरा में प्रचलित वन्दन जेमी दैनिक क्रिया का आश्रय लेकर

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