Book Title: Samdarshi Acharya Haribhadra
Author(s): Jinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 85
________________ ७१ योग-परम्परा मे प्राचार्य हरिभद्र की विशेषता साधने की जिस विधि का निरूपण है वह ध्यानयोग है । अन्तनिरीक्षण के द्वारा अपने मे पडे हुए क्लेश और उनसे अभिभूत साहजिक शक्तियों का पृथक्करण कर सके ऐसे विवेकजन्य ज्ञान को सिद्ध करने वाले संयम का तीसरे पाद मे सूचन है; वह ज्ञानयोग है । इस प्रकार पातंजल योगशास्त्र इन चतुर्विध योग का निरूपण करनेवाला एक अविकल योगशास्त्र है। पतंजलि ने अपने सुपठ और पारदर्शी सूत्रो मे उक्त चार योगो को केन्द्र मे रखकर समग्र चर्चा की है। उनकी यह चर्चा पूर्वकालीन अनेक योगशास्त्रो के दोहन का और स्वानुभव का परिणाम है । पतंजलि के पहले अनेक साख्य-योगी हो चुके है । उनमे से हिरण्यगर्भ का नाम प्रमुख है ।२४ उसका शास्त्र अथवा उपदेश हिरण्यगर्भ योग कहा जाता है। उसका समय निश्चित नहीं है, परन्तु वह बहुत ही प्राचीन है, यह तो निःशंक है । हिरण्यगर्भ के योगशास्त्र से चली आने वाली सांख्यावलम्बी योगप्रथा भगवद्गीता मे बहुत ही स्पष्ट और काव्यमय शैली मे वर्णित है। इस प्रकार भगवद्गीता और पातजल योगशास्त्र ये दो ग्रन्थ ऐसे है जो साख्यतत्त्वावलम्बी योगप्रक्रिया का पूर्ण प्रतिनिधित्व करते है । बुद्ध ने अपने ध्यानमार्ग का विकास साधा और उससे सम्बन्ध रखने वाली जिन जिन चर्यानो का सूचन किया है वे पालि पिटको मे इतस्ततः बिखरी हुई है, परन्तु इन सब छोटी-बड़ी, सूक्ष्म-स्थूल बातों का योग्य संग्रह बुद्धघोष ने अपने विशुद्धिमार्ग नामक ग्रन्थ मे किया है । उसमे शील एवं समाधि के जो प्रकरण हैं उनमे बौद्ध समाधिशास्त्र का पूर्ण हार्द आ जाता है। बुद्धघोष के इस स्थविरमार्गी ग्रन्थ के अतिरिक्त महायान परम्परा मे भी इस विषय के अनेक ग्रन्थ हैं जिनमे समाधिराज, दशभूमिशास्त्र और बोधिचर्यावतार विशेष उल्लेखनीय हैं। स्थविरवादी और महायानी परम्परा के ये ग्रन्थ बौद्ध तत्त्वावलम्बी समाधिमार्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं । २४ 'महाभारत' मे कृष्ण अपने आपको हिरण्यगर्भ कहते है और 'योगो के द्वारा' वे पूजित है ऐसा सूचित करते है हिरण्यगर्भो द्यु तिमान् य एषच्छन्दसि स्तुत । योग. सम्पूज्यते नित्य स एवाह भुवि स्मृतः ।। -शान्तिपर्व २४२६६ 'सागयोगदर्शन-भास्वती' का प्रारम्भ इस प्रकार होता है"स्मर्यते च-हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्य पुरातन ।" पृ० १ 'योगकारिका' -"शिप्टा हिरण्यगर्भण चर्षिभि पारदर्शिमि ॥५॥"

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