Book Title: Samdarshi Acharya Haribhadra
Author(s): Jinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 81
________________ योग-परम्परा मे आचार्य हरिभद्र की विशेपता ६७ इस प्रकार तापस प्रथा मे ग्रहिसा की दृष्टि से जो विशेष सुधार अथवा परिवर्तन हुए वे तपस्वी मार्ग के रूप मे प्रसिद्ध हुए । तपस्वी मार्ग ग्रहसा की दृष्टि से तापसमार्ग का ही एक संस्करण है । पार्श्वनाथ और खास कर के महावीर इस तपस्वी मार्ग के पुरस्कर्ता है । जैन आगमो मे जो प्राचीन वर्णन बच गये है उनमे तापस और तपस्वी के जीवन की भेदरेखा १४ स्पष्ट है । तपस्वी - जीवन मे उत्कट, उत्कटतर और उत्कटतम तप के लिए स्थान है, परन्तु उसमे मुख्य दृष्टि यह रही है कि वैसे तप का ग्राचरण करते समय सूक्ष्म जीव तक की विराधना न हो। इस तरह हमने संक्षेप मे देखा कि महादेव के पौराणिक जीवन से लेकर महावीर के ऐतिहासिक वर्णन तक तप की बाह्य चर्या मे उत्तरोत्तर कैसा सुधार अथवा परिवर्तन होता गया है । इस सुधार या विकास का समग्र चित्र भारतीय वाड्मय मे उपलब्ध होता है । तपोमार्ग का वर्णन पूरा करके श्रागे विचार करे उससे पहले तीन ऐतिहासिक तीर्थंकरो की जीवनचर्या की तुलना हम सक्षेप मे करे । बुद्ध, गोशालक और महावीर ये तीनों समकालीन थे । उस समय उत्तर एवं पूर्व भारत के विशाल प्रदेश पर श्रमणों एवं परिव्राजको के अनेक समूह विचरते थे । वे सब अपने-अपने ढंग से उत्कट या मध्यम प्रकार का तप करते थे । गृह का परित्याग किया तब से बुद्ध तप करने लगे । उन्होने स्वमुख से अपनी तपश्चर्या का जो वर्णन किया है, और जो ऐतिहासिक ष्ट से बहुत महत्त्व का है, उसमे स्वयं उनके द्वारा श्राचरित नाना प्रकार के तपो का निर्देश है ।१५ उस निर्देश को देखते हुए ऐसा कहा जा सकता है कि अवधूतमार्ग मे जिस प्रकार के तपो का ग्राचरण किया जाता था, वैसे ही तप बुद्ध ने किये थे । श्रवघुतमार्ग मे पशु और पक्षी के जीवन का अनुकरण करने वाले तप विहित है । बुद्ध ने वैसे ही उग्र तप किये थे । गोशालक और महावीर दोनो तपस्वी तो थे ही, परन्तु उनकी तपश्चर्या मे न तो अवधूतो की और न तापसो की विशिष्ट तपश्चर्या का १३. देखो 'चउप्पन्नमहापुरिसचरिय' के अंतर्गत पासनाहचरिय मे कमठप्रसंग, पृ० २६१-२, 'त्रिपष्टिशला कापुरुषचरित' पर्व ६, सर्ग ३, श्लोक २१४-३० । १४ तापसका एक अर्थ 'तापप्रधान तापस' ऐसा भी होता है, और तपस्वी शब्द के विविध अर्थो मे 'प्रशस्ततपोयुक्त' एव 'प्रशस्ततपोऽन्वित' ऐसे अर्थ भी दिये गये है, जिससे तापस की अपेक्षा तपस्वी भिन्न होता है ऐसा सूचन उपलब्ध होता है । देखो 'अभिधानराजेन्द्र' मे 'तवस्ति' और 'तावस' शब्द | पचाग्नि तप के स्थान पर तपस्वियों ने जिस श्रातापना को स्वीकार किया वह यह थी 'आयावयन्ति गिम्हेसु' - दशवेकालिकसूत्र ३ १२ । १५ देखो प्रस्तुत व्याख्यान की पादटीप २ |

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