Book Title: Samdarshi Acharya Haribhadra
Author(s): Jinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 64
________________ ५०] समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र धुरन्धर प्राचार्यों के विस्तीर्ण एव महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ मिलते हैं, जिनमें उस-उस परम्परा के प्राचार्यों ने इतर परम्पराग्रो के मन्तव्यो और आचारो की समालोचना गहराई और विस्तार से की है। उन मुख्य-मुख्य सभी ग्रन्थों के साथ तुलना करने का यहाँ अवकाश नहीं है, परन्तु वैसे पूर्ववर्ती ग्रन्थराशि मे मुकुट-स्थानीय एक मात्र तत्त्वसंग्रह के साथ शास्त्रवासिमुच्चय की तुलना करे तो वह यहाँ पर्याप्त समझा जायगा। तत्त्वसंग्रह बौद्ध परम्परा का ग्रन्थ है । इसके प्रणेता है शान्तरक्षित । यह हरिभद्र के निकट-पूर्वकालीन और शायद वृद्ध-समकालीन हैं। इन्होने जीवन के अन्तिम तेरह वर्ष तिव्वत मे व्यतीत किये और वहाँ बौद्ध परम्पराकी मजबूत नीव डाली।२२ इसके पहले वह नेपाल में भी रहे थे, परन्तु मुख्य रूप से तो वह नालंदा बौद्ध विश्वविद्यालय के प्रधान प्राचार्य रहे । उस समय नालंदा जितना विशाल विश्वविद्यालय कही भी हो, ऐसा निश्चित प्रमाण ज्ञात नही । उसमे केवल वौद्ध परम्पराका ही अध्ययन-अध्यापन नहीं होता था, किन्तु उस समय विद्यमान सभी भारतीय परम्पराओं को विद्यानो का अध्ययन-अध्यापन होता था। हजारो विद्यार्थी, सैकडों अध्यापक और महत्तम पुस्तकालय तथा देश-विदेश के जिज्ञासु-ऐसे विद्यासमृद्ध वातावरण में विश्वविद्यालय के प्रधान प्राचार्यपद पर आसीन शान्तरक्षितका विद्यामय व्यक्तित्व कसा होगा इसकी कुछ झांकी उनके तत्त्वसंग्रह नामक ग्रन्थ मे से मिल सकती है। यह ग्रन्थ भोट-भाषा में अनुवादित तो है ही, परन्तु मूल संस्कृत ग्रन्थ मात्र दो जैन भण्डारों में से २३ मिला है और यह गायकवाड़ ओरिएण्टल सिरीज़ मे प्रकाशित भी हुया है । यह विशाल मूल-ग्रन्य पद्यवद्ध है और इसके पद्यो की संख्या ३६४६ है । इसमे छन्वीस परीक्षाएं हैं। प्रत्येक परीक्षा में अपने मतमे सम्मत न हो अथवा विरुद्ध हो ऐसे मतान्तरों की समीक्षा की गई है। उनमे जैन और वैदिक जैसी बौद्धतर परम्परागो के मन्तव्य की समालोचना तो है ही, परन्तु बौद्ध परम्परा की जिन-जिन निकायो अथवा शाखाओ के साथ शान्तरक्षित सम्मत नहीं होते, प्राय. उन सभी शाखाप्रो की भी उन्होने तलस्पर्शी समालोचना की है । शान्तरक्षित वज्रयानी विज्ञानवादी थे। शून्यवाद के साथ उनका कोई खास विरोध नही था, परन्तु वैभापिक और सौत्रान्तिक जैसी शाखाओं के तो वे कट्टर विरोधी थे। दूसरे भी कई २२. 'तत्त्वसंग्रह' की प्रस्तावना पृ १० से १४ । २३. पाटनके वाडी पार्श्वनाथ के भडार मे से तथा जमलमेर के भण्डार मे से इस अन्य को पापियां उपलब्ध हुई है।

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