Book Title: Samdarshi Acharya Haribhadra
Author(s): Jinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 68
________________ ५४ ] समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र है, यह सूचित किया है । इस चर्चा मे उन्हें ऐसा लगा कि जैन परम्परा कर्म का उभयविध स्वरूप मानती है । चेतन पर पडनेवाले भौतिक परिस्थिति के प्रभाव को और भौतिक परिस्थिति पर पडनेवाले चेतन- संस्कार के प्रभाव को मानने के कारण वह सूक्ष्म भौतिक दल को द्रव्य कर्म और जीवगत संस्कार - विशेषको भाव कर्म कहती है । हरिभद्र ने देखा कि जैन परम्परा बाह्य भौतिक तत्त्व तथा प्रान्तरिक चेतन शक्ति इन दोनो के परस्पर प्रभाववाले संयोग को मानकर उसके आधार पर कर्मवाद और पुनर्जन्म का चक्र घटाती है, तो आखिरकार चार्वाक मत अपने ढंगसे भौतिक द्रव्य का स्वभाव मानता है और मीमांसक एवं बौद्ध भौतिक तत्त्व का वैसा स्वभाव स्वीकार करते है । अतएव हरिभद्र ने इन दोनो पक्षो मे रहे हुए एक-एक पहलू को परस्पर के पूरक के रूप मे सत्य मानकर कह दिया कि जैन कर्मवाद में चार्वाक २८ और मीमासक या बौद्ध मन्तव्यो का समन्वय हुआ है । इस प्रकार उन्होने कर्मवाद की चर्चा मे तुलना का दृष्टिबिन्दु उपस्थित किया है । २. न्याय-वैशेषिक आदि सम्मत जगत्कर्तृत्ववाद का प्रतिवाद शान्तरक्षित की भाँति हरिभद्र ने भी किया है, परन्तु शान्तरक्षित श्रौर हरिभद्र की दृष्टि में उल्लेखनीय अन्तर है । शान्तरक्षित केवल परवाद का खण्डन करके परितोष पाते है, जब कि हरिभद्र इस प्रसम्मतवाद की अपनी मान्यता के अनुसार समीक्षा करने पर भी सोचते है कि क्या इस ईश्वरकर्तृत्ववाद के पीछे कोई मनोवैज्ञानिक रहस्य तो छुपा हुआ नही है ? इस समभावमूलक विचाररणा मे से ही उन्हे जो रहस्य स्फुरित हुना उसे वे तुलनात्मक दृष्टि से उपस्थित करते हैं । उन्हे मानव स्वभाव के निरीक्षण पर से ऐसा ज्ञात हुआ होगा कि सामान्य कक्षा के मानवमात्र मे अपनी अपेक्षा शक्ति एवं सद्गुरण मे सविशेष समुन्नत किसी महामानव या महापुरुष के प्रति भक्तिप्ररणत होने का और उसकी शरण मे जाने का भाव स्वाभाविक रूप से होता है । इस भाव से प्रेरित होकर वह वैसे किसी समर्थ व्यक्ति की कल्पना करता है । वैसी कल्पना स्वभावत एक स्वतंत्र और जगत् के २८ कर्मणो भौतिकत्वेन यद्वं तदपि साम्प्रतम् । श्रात्मनो व्यतिरिक्त तत् चित्रभाव यतो मतम् ॥ ६५ ॥ - शास्त्रवार्तासमुच्चय २६ शक्तिस्प तदन्ये तु सूरय सम्प्रचक्षते । श्रन्ये तु वामनारूप विचित्रफलदं मतम् ॥ ६६॥ - शास्त्रवार्तासमुच्चय

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