Book Title: Samdarshi Acharya Haribhadra
Author(s): Jinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 49
________________ दर्शन एवं योग के विकास मे हरिभद्र का स्थान [ ३५ केवल दर्शन और योग की परम्परा के साथ ही है । ऐसी उपलब्ध कृतियाँ मुख्य रूप से प्राचार्य हरिभद्र की है । हरिभद्र के अतिरिक्त अन्य बौद्ध, जैन और वैदिक विद्वानो ने इन विषयों के ऊपर कुछ-न-कुछ रचना की होगी ऐसी धारणा रखना सर्वथा अनुपयुक्त नही है, परन्तु पाठवी शताब्दी तक इस क्षेत्र मे रचित और विद्वानो का ध्यान आकपित करे ऐसी दर्शन और योग-परम्परा-विषयक कृतियाँ तो प्राचार्य हरिभद्र की ही है। अतएव अब हम यह सोचे कि दर्शन एवं योग-परम्परा के विचार-विकास मे श्राचार्य हरिभद्र का स्थान क्या है और वह कैसा है ? ४. प्राचार्य हरिभद्र का स्थान प्राचार्य हरिभद्र के समय तक देश का ऐसा कोई भी भाग दृष्टिगोचर नही होता जहाँ कि दार्शनिक एवं योग के विचारो के छोटे-बडे अखाड़े न चलते हो। हरिभद्र के पूर्ववर्ती और समकालीन ऐसे अनेक जैन-जेनेतर विद्वान् हुए है, जिनकी विचारसूक्ष्मता, वक्तव्य की स्पष्टता और बहुश्रुत तार्किकता हरिभद्र से भी बढकर है। वैसे ही विशिष्ट विद्वानो की समर्थ कृतियो के अध्ययन और परिशीलन के आधार पर ही हरिभद्र के मानसिक-प्राध्यात्मिक व्यक्तित्वका निर्माण हुआ है । ऐसा होने पर भी जब दर्शन और योग-परम्परा के विकास मे हरिभद्र की क्या देन है अथवा उसमे दूसरे किसी ने न दिखाई हो वैसी कौनसी नवीनता का उन्होने समावेश किया है यह कहना हो तब तो हरिभद्र के पूर्वकालीन तथा उत्तरकालीन प्राचार्यों की दृष्टि के साथ उनकी दृष्टि की तुलना करने पर ही कुछ यथार्थ विधान किया जा सकता है । इस दृष्टि से जब मै वैसी तुलना करता हूँ, तब मुझे असन्दिग्ध रूप से प्रतीत होता है कि हरिभद्र ने जो उदात्त दृष्टि, असाम्प्रदायिक वृत्ति और निर्भय नम्रता अपनी कृतियो मे प्रदर्शित की है वैसी उनके पूर्ववर्ती अथवा उत्तरवर्ती किसी भी जैन-जेनेतर विद्वान् ने शायद ही प्रदर्शित की हो। हरिभद्र ने दर्शन और योग-परम्परामे जो योग-दान किया है अथवा उसमे जो नव्यता लाने का प्रयत्न किया है उसकी भूमिका ऊपर सूचित उनकी दृष्टि और वृत्ति मे रही है। यह दृष्टि और यह वृत्ति सक्षेप में निम्नलिखित पाँच गुणो के द्वारा प्रकट होती है १ समत्व - आध्यात्मिकता का परम लक्ष्य समभाव या निप्पक्षता है । हरिभद्र ने अपने दर्शन और योग के ग्रन्थो मे इसे किस हद तक साधा है यह हम आगे देखेगे । ___ २ तुलना - हरिभद्र ने परापूर्व से प्रचलित खण्डन-मण्डन की परिपाटी मे तुलनादृष्टि को जो और जैसा स्थान दिया है वह और वैसा स्थान उनके पूर्ववर्ती, समवर्ती

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