Book Title: Samdarshi Acharya Haribhadra
Author(s): Jinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

View full book text
Previous | Next

Page 50
________________ ==] सुन्दाचार्य हरिन्द्र अथवा उतरवर्ती किसी में मेरे देखने में चाया नहीं है । सत्य वा मनुश्य के अविवाधिक समीप पहुँचा जा सके इस हेतु से उन्होंने परवादी के मतव्यों के हृदय में अधिक से अधिक गहरा उतरते न प्रयत्न किया है और अपने नन्तव्य के साथ वह पवन मन्तव्य परिमाणमेव वा विवरणमेद होने पर भी, दिस तरह साम्य रखना है- यह उन्होंने स्वमरमतकी तुलना द्वारा अनेक स्थानों पर बनाया है। परसमालोचना करते समय काचिने अन्याय हो जाय ऐसी पामीर वृत्ति उन्होंने तुलना में जिस प्रकार दिखलाई है देन वृति माग्द ही मी अन्य विद्वान् ने दिखाई हो । ३. बहुमान वृद्धि — नीन्द्रिय और शास्त्रीय परम्परागत तत्त्वोंकी समालोचना करते में अनेक नयस्यान रहे हुए हैं। वैसे स्वस्यानोंको पार करके कोई समालोचना करे. उस समय भी प्रत्येकान में के मतव्यों के साथ सर्वया सम्मत हो नेकन बहुत कठिन होता है। ऐसी स्थिति हो तब भी हरिभद्र, परदादीके ननव्यों के बहुव्रत पड़ने पर भी, उनके प्रति जो विरल बहुमान और आदर प्रदर्शित करते हे रत्न आध्यात्मिक क्षेत्र में विरल प्रदान वहा ना मुक्ता है । नृत्य के समर्थन का और आणनिता का दावा करनेवाले किसी भी जैन सुनेतर विद्वान् ने अपने विरोधी सन्प्रदाय के प्रवर्तक या विद्वान के प्रति हरिभद्रने दिखलाया है वैसा बहुमान यदि दिया हो तो वह मैं नहीं जानता । ४. स्वपरम्परा को भी नई दृष्टि और नई नेट- सामान्यत. दार्शनिक विद्वान् अपनी समग्र विचारखति म पन्डित्ववल परम्यरम्परा की समालोचना में लगा देते हैं और अपनी परंपराको रहने जैसा मत्यस्फुरित होता हो, तब भी वे स्वपरम्परा के रोर का भारत बनने की चाहनवृत्ति नहीं दिखलाते और उस बारे में जैसा चलता चलते रहने देने की वृत्ति रखकर अपनी परम्पराको ऊपर उठाने का अथवा की कमी लाने का शायद ही प्रयत्न करते हैं । किन्तु हरिन इस बारे में भी मईया निराने हैं। उन्होंने परवादियों के प्रय्वा पर परम्पराओं के साथ के व्यवहार सतयवृत्ति और निर्भता दिलाई है वेनी ही तस्यवृत्ति और निर्भयता रूपरम्परा के प्रति कई मुद्दे क्ष्ति करने में भी दिलाई है। यह हन आगे देखेंगे। अन्तर मिटाने का कौशल - सामान्यतः बड़े-बड़े और साधारण विहान हैं कुछ लिखते हैं उसमें विजिगीपा तथा त्वनरम्परा स्या करने की भावना मुख्य बने रहती है, जिसने सन्प्रदाय-सम्प्रदाय के

Loading...

Page Navigation
1 ... 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141