Book Title: Samdarshi Acharya Haribhadra
Author(s): Jinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
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दार्शनिक परम्परा मे प्राचार्य हरिभद्र की विशेषता [३६ अशोक ने जैसे सभी ब्राह्मण-श्रमण वर्गों को उद्दिष्ट करके शिक्षा दी है, वैसे ही बौद्धनिकायो को उद्दिष्ट करके भी सलाह और बोध दिया है। अशोक जब बुद्ध-धर्म-सघ का त्रिशरण स्वीकार करके बौद्ध उपासक हुआ, तब उसने बौद्ध धर्म मे पैदा हुए पक्ष-पक्षान्तरो और भिन्न-भिन्न निकायो के बीच, सत्य के दावे के लिए ही, होने वाली गाली-गलौच को देखकर उसे दूर करने के लिए भदन्तो को भी नम्र सूचना की है।
अशोक के धर्मशासन सूचित करते है कि उसके समय मे ब्राह्मण और श्रमण __वर्ग के बीच दर्शन और धर्म के विषय मे कैसी अनिष्ट स्थिति प्रवर्तमान थी।
दर्शन या तत्त्वज्ञान धर्म-सम्प्रदाय के आधार पर ही टिकता और विकसित होता है, तो धर्म-सम्प्रदाय भी तत्त्वज्ञान की भूमिका के बिना कभी स्थिर नही हो सकता । दोनो का मिलन जैसे आवश्यक है वैसे ही हितावह भी है, परन्तु जव कोई एक दर्शन अमुक धर्म-सम्प्रदाय के साथ स कलित हो जाता है तब उसके साथ दूसरी अनेक वस्तुएँ भी अस्तित्व मे आती हैं। दर्शन और प्राचारविषयक ग्रन्थ, उनके प्रणेता और व्याख्याता, इन सबको पोसनेवाला और आदर देनेवाला अनुयायीवर्गइस तरह दर्शन और धर्म दोनो मिलकर एक विशिष्ट प्रकार का जीवित सम्प्रदाय बनता है । सम्प्रदाय के पुरस्कर्ता चाहे या न चाहे, परन्तु उसमे एक ऐसा वातावरण निर्मित होता है जिससे कि सम्प्रदायो मे मात्र श्रेष्ठता-कनिष्ठता की ही वृत्ति उदित नहीं होती, बल्कि वे धीरे-धीरे दूसरे को हेय और अस्पृश्य तक मानने लगते है, इतना ही नही, इतिहास में ऐसे अनेक प्रसग भी उल्लिखित है जिनमे सम्प्रदायभेद के कारण ही गाली-गलौच, मारपीट और लडाई तक की नौबत पैदा हुई थी।
सत्य-दर्शन और सत्यलक्षी प्राचार के नाम पर ही जव तुमुल युद्ध अथवा भीपण वादविवाद हो, तब अशोक जैसे का चित्त द्रवित हो और वह ध्रुव शिलापट्टो मे प्रकट हो, यह स्वाभाविक है। अशोक तथा उसके जैसे दूसरे कई लोगो की सावधानी के वावजूद भी उत्तर काल मे इस शुष्क वाद और विवाद का चक्र रुका नही है । इसके प्रमाण प्रत्येक परम्परा के दर्शन और धर्म-विपयक ग्रन्थो मे अल्पाधिक मिलते ही है।
२ देखो 'अशोकना शिलालेखो' (गुजराती) सारनाथ का शिलालेख ।
३ देखो इमी लेखक के 'दर्शन अने चिन्तन' (गुजराती) मे 'साम्प्रदायिकता अने तेना पुरावाोनु दिग्दर्शन' नामक लेख पृ ११०६ से ११६५, 'कथापद्धतिना स्वरूप अने तेना साहित्यनु दिग्दर्शन' पृ ११६६ से १२६३ । इसमे वाद एव तद्विपयक साहित्य के विकास का विस्तारपूर्वक निरूपण किया गया है।