Book Title: Samdarshi Acharya Haribhadra
Author(s): Jinvijay, Sukhlal Sanghavi, Shantilal M Jain
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
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जीवन की रूपरेखा
[१५ वियोग" के लिए अनुताप करने की अपेक्षा भव-विरह अर्थात् मोक्ष-धर्म को लक्ष्य मे रखकर ग्रन्थ-रचना मे एकाग्र हो जाना ही परम कर्तव्य है । इस प्रकार उन्होने अपने "भव-विरह" के मुद्रालेख मे से आश्वासन प्राप्त किया और शिप्यो के विरहजन्य शोक को शांत किया। इस घटना का स्मरण उन्होंने "भव-विरह" शब्द मे सुरक्षित रक्खा है।
(३) याचकों को आशीर्वाद और उनके जय जयकार का प्रसंग.
तीसरा प्रसंग ऐसा है कि जब कोई भक्त हरिभद्रसूरि के दर्शनार्थ आता तो वह उन्हें आशीर्वाद के रूप मे अाजकल जैसे "धर्मलाभ" कहा जाता है वैसे “भवविरह" का आशीर्वाद देते । इस पर आशीर्वाद लेनेवाला भक्त 'भव-विरहसूरि बहुत जीये' ऐसा कहता । इस विषय की एक खास घटना का उल्लेख 'कहावली' मे आता है, जो जानने जैसा है। लल्लिग नाम का एक व्यापारी गृहस्थ हरिभद्र के ऊपर अनन्य आदरभाव रखता था। वह पहले तो दरिद्र था, परन्तु धीरे धीरे सम्पन्न होने पर वह अपनी सम्पत्ति का उदारता से उपयोग करने लगा। वह प्रतिदिन मुनियो के भिक्षा के समय शंख बजाता और जो कोई भूखा आता उसे खाना खिलाता। उसके मनमे कुछ ऐसा बस गया होगा कि त्यागी गुरु को भिक्षा देना तो कर्तव्य है ही, परंतु गाव की हद मे से कोई भूखा न जाय यह देखने का भी गृहस्थ का धर्म है । यह
आतिथ्य-परम्परा अाज के कडे समय मे भी थोडी बहुत बची तो है ही। धर्मशाला, सराय आदि स्थानो मे सदाव्रत की जो परम्परा बची हुई है वह पूर्वकालीन आतिथ्यधर्म का प्रतीक है । लल्लिग इस धर्म में विशेष रस लेता होगा। श्रागन्तुक लोग भोजनशाला मे भोजन करने के बाद हरिभद्रसूरि को वन्दन करने के लिए भी जाते थे। वह उन्हे, 'भव-विरह प्राप्त करो, तुम्हारा मोक्ष हो' ऐसा आशीर्वाद देते थे । आगन्तुक भी उन्हे 'भव-विरहसूरि बहुत जीये' ऐसा कहकर विदाई लेते थे। इस प्रसंग से भी ऐसा मालूम होता है कि उनका उपनाम 'भव-विरह' विशेष प्रसिद्धि मे आया होगा।
यहा हरिभद्रसूरि के भक्त के रूप मे लल्लिग का जो उल्लेख है उसका एक खास अर्थ भी है, और वह यह कि लल्लिग ने हरिभद्रसूरि को ग्रन्थ-रचना मे बहुत बडी सहायता की थी। हरिभद्रसूरि ने रातदिन अपनी समग्र शक्ति विविध ग्रन्थो की रचना मे लगा दी। वे रात के समय भी लिखते थे, परन्तु उस काल मे कागज जैसे अद्यतन साधन तो थे ही नहीं। पहले तख्ती या दीवार के ऊपर लिखा जाता था, उसमे सशोधन, परिवर्तन या परिवर्धन करके अंतिम रूप देने के उपरात ही ताडपत्र आदि के
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रे त रात मे लिखना हो तो साधु