Book Title: Sambodhi 2000 Vol 23
Author(s): Jitendra B Shah, N M Kansara
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 99
________________ SAMBODHI पारुल मांकड ___ यतः काव्यादिज्ञानं विशिष्टज्ञानं वर्धते । तथा यशः संभाव्यते । गुणा विवेकादयोऽय॑न्ते । सुपुरुषस्य रामादेश्वरितं श्रूयते । अत एतस्योपादेयत्वम् । तदुक्तम्-काव्यं, यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये इत्यादि । (पृ. ९) सेतुतन्वचन्द्रिका टीका में प्रस्तुत पद्य का विवरण इस प्रकार प्राप्त है। काव्यप्रवृत्तिजनिकां प्ररोचनामाह-परिवड्ढइ इति । परिवर्धते विज्ञानं हेयोपादेयबुद्धिस्तदध्येतृणां भवतीत्यर्थः । गुणाः शौर्यादयः काव्ये शौर्यादिगुणस्तुतिदर्शनात्... । श्रूयते रामादीनां सुपुरुषाणां चरितं प्रजापालनसद्वृत्तमतः किं तद्येन न हरन्ति काव्यालापा सर्वप्रकारैरेव मनो हरन्तीत्यर्थः । (पृ. ६) कुलनाथ भी काव्यशास्त्र की परिभाषा में ही प्रस्तुत पद्य का विवरण देते हैं - धर्मार्थकामशास्त्रार्थज्ञानं तस्याङ्गत्वेन निबद्धं तदध्येतॄणां विज्ञानबुद्धिर्भवतीति भावः । संभाव्यते यशः काव्याभ्यासेन कवित्वलाभात् काव्य...लभ्यते । गुणाः शौर्यादयो लभ्यन्ते काव्ये शौर्यादिगुणस्तुति दर्शनात् . तदुपार्जनरसः... भवतीति भावः । - (डॉ. हेन्दीक्वी की आवृत्ति पृ. १७९) हेमचन्द्र ने प्रयोजन-उपन्यास मानें काव्य के प्रयोजन के न्यास के संदर्भ में सेतु. का उपरोक्त उद्धरण प्रस्तुत किया है। (का.शा. पृ. ४५६) प्रवरसेन ने बाणभट्ट की तरह अपने प्रबन्ध में काव्यशास्त्रीय वस्तु का जिक्र किया है। काव्य के जो विविध प्रयोजनों का निर्देश प्रवरसेन करतें हैं, मम्मट की काव्यं यशसे० इत्यादि संपूर्ण कारिका का समान्तन्तरेण स्मरण होता है । संभव है, मम्मट इससे प्रेरित हुए हैं। विद्यानाथ ने भी हेमचन्द्र की तरह काव्य के प्रयोजनों को वर्णित करते समय सेतु. का परिवठ्ठइ० पद्य उद्धृत किया है। पाठ में एक दो परिवर्तन है ।१९ सेतु. का यह काव्यशास्त्रीय निर्देश भी ध्यानार्ह है। इसमें ज्ञान का परिवर्धन, यश की संभावना गुणों का अर्जन और सत्पुरुष का चरित्रश्रवण यह चार प्रजोजन निर्दिष्ट है। 'अय॑न्ते गुणाः' का अर्थ कुमारस्वामी ने 'रत्नापण' में पुरुषार्थ बताया है। चतुर्वर्गव्युत्पत्तिरप्यत्रैव भवतीति भावः । (पृ. ५) पीणपओहरलगं दिसाणं पवसन्तजलअसमअविइण्णम् । सोहगपढमइण्हं पम्माअइ सरसणहवअं इन्दधणम् ॥ सेतु. १/२४ - (स.कं. पृ. ४२९) पीनपयोधरलग्नं दिशां प्रवसज्जलदसमयवितीर्णम् । सौभाग्यप्रथमचिह्न प्रम्लायति सरसनखपदमिन्द्रधनुः ॥

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