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पारुल मांकड
SAMBODHI ___ 'विलाप' के निरूपण में (करुणरस अन्तर्गत) भोज ने यह पद्य उद्धृत किया है। यहाँ सीताजी का विलाप है।
रइअरकेसरणिवहं सोहइ धवलब्भदलसहस्सपरिगअम् । महुमहदंसणजोगं पिआमहुप्पत्तिपङ्कअं व णहअलम् ॥ (स.कं. पृ. ४२७) रविकरकेसरनिवहं शोभते धवलाभ्रदलसहस्रपरिगतम् ।
मधुमथनदर्शनयोग्यं पितामहोत्पत्तिपङ्कजमिवनभस्तलम् । भोजदेव ने यहाँ उपमालंकार स्वीकार किया है, रूपक नहीं । प्रथम पंक्ति में रूपक है, उपमा से संकीर्ण सावयव रूपक है। (पृ. ४२७) भोज के अनुसार पिआमहोत्पत्ति० ... इत्यादि में अवयव और अवयवी की अभेदविवक्षा नहीं है, अतः उपमा ही है।
रामदास भूपति भी यहाँ उपमा ही मानतें है। (पृ. १२) विअसंतरअक्खउरं मअरंदरसुद्धमायमुहलमहुअरं । उउणा दुमाण दिज्जइ हीरइ न उणाइ (१ उणो) अप्पण च्चिअ कुसुमं२१ ॥ (सेतु. ६/११)
विकसद्रजः कलुषं मकरन्दरसाध्मातमुखरमधुकरम् ।
ऋतुना द्रुमाणां दीयते हियते न पुनस्तदात्मनैव कुसुमम् ॥ हेमचन्द्र ने अन्योक्ति (इतर आलंकारिको की अप्रस्तुतप्रशंसा) अलंकार की चर्चा में 'विवेक' में यह उद्धरण से प्रस्तुत के उपन्यास को दर्शाया है, परंतु हेमचन्द्र इस में अन्य वृत्तान्त के निबन्धन में राम और समुद्र के व्यापाररूप अन्य वृत्तान्त द्वारा ऋतु, द्रुम के व्यापारों के प्रतिबिम्ब का निर्देश होने से अर्थालंकार निदर्शना प्रतिपादित करतें हैं।
सेतुतत्त्वचन्द्रिका (पृ. १५६)ने यहाँ दृष्टान्त माना है। किञ्च त्वया दत्तं धैर्य दुस्तरत्वञ्चत्वया दूरीकर्तुं नोचितमिति दृष्टान्तेन दृढयति ।
विअलिसविओअविअणं तक्खणपन्भट्टराममरणाआसम् । जणअतणआइ णवरं लद्धं मुच्छाणिमीलिअच्छीअ सुहं ॥ (सेतु. ११/५७) विगलितवियोगवेदनं तत्क्षणप्रभ्रष्टराममरणायासम् ।
जनकतनयया केवलं लब्धं मूर्छानिमीलिताझ्या सुखम् ॥ भोज ने 'मूर्छा' के उद्धरण के रूप में यह पद्य पेश किया है, जिसमें पतिशोक की प्रकर्षता के कारण सीता को आई हुई मूर्छा का निरूपण है।