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Vol. XXIII, 2000 काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में 'सेतुबन्ध' के कतिपय उद्धरण... '
भोज का दृष्टिकोण कुछ अलग है, अभिनवगुप्त की तरह वे इसमें अप्रस्तुतप्रशंसा नहीं मानते, किन्तु अभाव के अन्तर्गत प्राग्भाव का उदाहरण स्वीकार करते हैं। अभाव अभाव से ही प्रतीत कराते हैं। पारिजातादि चीजों का स्वर्गादि में अभाव निरूपित है। (स.कं. पृ. ३९५)
हेमचन्द्र का.शा. की वृत्ति में इस उद्धरण को स्पष्ट करते हैं।
अत्र जाम्बवान् वृद्धसेवाचिरजीवित्वव्यवहारकौशलादौ मन्त्रिताकारणे प्रस्तुते कौस्तुभलक्ष्मीविरहितवक्षः स्मरणादिकमप्रस्तुतं कार्यं वर्णयति । (का.शा. पृ. ३६५)
यहाँ जाम्बवान् वृद्धसेवा, चिरजीवित्व, व्यवहारकौशल इत्यादि मन्त्रिता में निमित्तरूप प्रस्तुत होने से कौस्तुभ और लक्ष्मीरहित हरि (विष्णु) के वक्ष का स्मरणादि रूप अप्रस्तुत कार्य का वर्णन करतें हैं ।
(= समुद्रमंथन की पूर्वस्थिति) अत: अन्योक्ति (= अप्रस्तुतप्रशंसा) अलंकार प्राप्त होता है। भाविक अलंकारध्वनि भी इस में है, क्योंकि भूतकाल के दृश्य को कवि ने वर्तमान में तादृश किया है। सा.मी.कार इस संदर्भ में बतातें है -
अभावोऽपि प्रमाणाभावः । (पृ. १७८) अभाव भी प्रमाण का अभाव सिद्ध करता है। पारिजातविहीन स्वर्ग इत्यादि में अभाव प्रमाण है। भोज का अनुसरण है, यह कहना जरूरी नहीं । आधारवत् रूपक के उदाहरण स्वरूप भोज ने प्रस्तुत पद्य उद्धृत किया है -
सहइ विसुद्धकिरणो गअणसमुद्दम्मि रअणिवेलालगो । तारामुत्तावअरो फुऽविहडिअमेहसिप्पिसम्पुडविमुक्को ॥
___(सेतु. १/२२, स.कं. पृ. ४२५) शोभते विशुद्धकिरणो गगनसमुद्रे रजनीवेलालग्नः ।२६
तारामुक्ताप्रकारः स्फुटविघटितमेघशुक्तिसंपुट विमुक्तः ॥ यहाँ शब्दार्थ प्राधान्य के कारण रूपक है, शुद्ध है, समुद्र का आरोप गगनाधार पर किया है, रजनी पर वेला का, ताराओं पर मुक्ता का और मेघ पर शुक्ति का आरोप है।
रामदास भूपति भी यहाँ रूपक ही मानते हैं। मालोपमालंकार के संदर्भ में एक और पद्य -
सोह व्व लक्खणमुहं वणमालव्व विअडं हरिवइस्स उरं । कित्ति व्व पवणतणयं आण व्व बलाई से वलग्गए दिट्ठी ॥ (सेतु. १/४८)