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( १८ )
जंगल में कष्ट पाता है और इधर मैं राज्य ऋद्धि भोगता हूँ अतः मुझे धिक्कार है ! उसने भाई को नगर में बुलाने के लिए कई वेश्याओं को आज्ञा दी कि तुम लोग तापस-वेश करके आश्रम में जाओ और अपने हाव-भाव, कला-विलास से आकृष्ट कर मेरे भाई वल्कलचीरी को शीघ्र यहां ले आओ !
तरुणी वेश्याएं बील, फलादि लेकर तापसाश्रम पहुँची । वल्कलचीरी ने अतिथि आये जान कर उनका स्वागत करते हुए पूछा कि आप लोग किस आश्रम से आये हैं ? उन्होंने कहा हम लोग पोतन आश्रम में रहते हैं ! जब वल्कलचीरी ने उन्हें वन - फल खाने को दिये तो उन्होंने अपने लाए हुए फल उसे देते हुए कहा कि - देखो हमारे आश्रम के ये स्वादिष्ट फल हैं, तुम तो निरस फल खाते हो ! वल्कलचीरी ने उनकी सुकुमार देह पर हाथ लगाया और पूछा कि तुम्हारे हृदयस्थल पर ये बील की तरह सुकोमल सुस्पर्श क्या है ? वेश्याओं ने कहाहमारे आश्रम का सुकुमाल स्पर्श और मधुर फल पुण्योदय से ही मिलता है । यदि तुम्हारी इच्छा हो तो हमारे आश्रम में चलो ! वल्कलचीरी मधुर फलों के स्वाद और अंग स्पर्श से आकृष्ट हो कर पोतन आश्रम चलने के लिए प्रस्तुत हो गया । वेश्याओं ने नये वस्त्र पहिना कर उसके पहिने हुए वल्कल को वृक्ष पर टंगा दिया एवं संकेतानुसार आश्रम से निकल पड़े। वन में जब दूर से ऋषि सोमचंद्र के आने का समाचार उन्होंने सुना तो भय के मारे वेश्याएं भग गई ।
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