Book Title: Samaysundar Ras Panchak
Author(s): Bhanvarlal Nahta
Publisher: Sadul Rajasthani Research Institute Bikaner

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Page 190
________________ धनदत्त श्रेष्ठि चौपई] [११६ ढाल (९)राग-धन्यासिरी, भरतनृप माव सँ ए, एहनी गुरूनी सीख माहे रहइए, सांभलइ सूत्र सिद्धान्त । संजम सूधुं करे ए, धनदत्त नामै साध । सं०। विनय वेयावच पणि करइ ए, ध्यान धरइ एकान्त । १ ।सं। खिण परमाद करइ नहीं ए, आतापना करइ नित्य । सं। करम खपावइ आपना ए, साधजी बोले सत्य । २। सं०। अति कठोर क्रिया करइ ए, तप करइ आकरा तेह । सं० । करम थकी छूटण तणउ ए, सही उपाय छै एह । ३ । सं० । अनित्य भावना भावतां ए, ऊपनु केवलज्ञान । सं०। अनुक्रमि शिव सुख पामीयउए, व्यवहार सुद्धि निदान । ४ ।सं० साध तणइ गुण गावतां ए, जीभ हुयइ पवित्र । सं०। सांभलतां सुख संपजइए, दरसण दीठा नेत्र । ५ ।सं०। मसकति नं फल मांगीयइ ए, धनदत्त साधनइ पासि । सं०। तुम्हे पाम्या ते आपज्यो ए, मुझमन पूरिज्यो आस । ६। सं० । संवत सोल छिन्नू समइ ए, आसू मासि ममारि । सं० । अमदावादइ ए कह्यौ ए, धनदत्त नउ अधिकार । ७। सं०। श्री खरतर गच्छ राजीयउए, श्री जिनचन्द्र सूरीस । सं०। प्रथम शिष्य जगि परगड़ाए, सकलचन्द्र तसु सीस। ८। सं०। समयसुन्दर संबंध काउए, जिनसागरसूरि राज । सं० । भणतां गुणतां भाव सुं ए, सीझे वंछित काज । सं०।। ॥ इति व्यवहार शुद्ध विषये धनदत्त श्रेष्टि चौपई ॥ .. सर्वगाथा १६१ ग्रन्थाग्रन्थ श्लोक २१८ संवत् १७७८वर्षे मिति चैत्र सुदि २ दिने ईसाभईखान मई कोटेलिखतं । श्री अभय जैन ग्रन्थालय प्रति नं ८९/४३०० पत्र ४ पंक्ति १८ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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