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[समयसुन्दर रासत्रय पुण्य करी परिघल सहू, उत्तम चाल आचार। पालै प्रीति कीधा पछी, नगर तगां नरनारि ॥२०॥ चि० ताजौ तेथि त्रिपोलियौ, सखर घणुं हाट सेरि । गढ मढ देउल दीपता, फटरी वाड़ी चौ फेरि ।।२१।। चि० वेरा कूआ नै वावड़ी, नदीय तलाव नीवांण । परघल पाणी सहु को पीये, मीठो अमृत समाण ॥२२॥ चि० नगरी चंपा सारखी, नहीं का बीजी किण देस। 'समयसुदर' कहै सांभलो, वर्णवी मैं लवलेश ॥२३॥ चि०
[सर्वगाथा ३३ ]
राज कर तिहां राजीयौ, सामंतक सूरवीर । राजा राज प्रजा सुखी, सबल हटक ने हीर ।। १ ।। वृद्धदत्त विवहारीयौ, वसै तिहां धनवंत । सोनईया छिन्नूं कोड़ि छ, पणि खुड़दौ न खरचंति ॥२॥ सोनईया सगला सदा, आघा ओरडै घालि । आठ पहुर आडौ रहै, परनै राखै पालि ।। ३ ।। देहरासर जिम देवता, पूजीजे परभाति । वृद्धदत्त विवहारीयो, धन पूछे दिन राति ।। ४ ।। कौतिकदेवी कामिनी, पिण नहीं पुत्र संतान । पुत्री एक त्रिलुत्तमा, रूप रंभ समान ।। ५॥ साधदत्त नामै सधर, भेला रहै बे भाय । दान पुण्य देवा तणी, बात विगत नहीं काय ॥६॥
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