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[समयसुन्दर रासत्रय
मुहतो कहिं मुगधा लिख्यौ, नहिं कुल ने योग्य एहो रे । विह कहै ते विघट नहीं, तेहनौ सिरज्यौ तेहो रे ।। ८॥ उ० बुद्धि प्रपंच करी बहु, तू ऊभी थकी देखो रे। वहिलौ हुं विघटाडिसु लिख्या ललाटे लेखो रे ॥ ६ ॥ उ० मुहता करै मांटीपणौ, ए वात कइयै न थायो रे। विघटाडै विहना लिख्या, कलियुग में नहीं कोयो रे॥१०॥ उ० वाद विधाता इम कही, अदृश थई ततकालो रे। जोवा कुण हारै जीपै, समयसुदर छै विचालो रे ॥११॥ उ०
[सर्वगाथा १६३ ]
दूहा एक दिवस मथुरापुरी, आया कटक अजाण । हरिबल राजा जूझतां, तज्या आपणा प्राण ॥ १॥ नगर लोक नासी गया, सहर लूटाणो सर्व । अरियण तिहाँ राजा थया, गरूआ आणी गर्व ॥२॥ मतिसागर मुंहता. तणौ, हरदत्त भूप नौ पुत्र । ए पिण बे नासी गया, विगड्यौ राज नौ सूत्र ॥३॥ परदेसे गया 'पाधरा, करता भिक्षा-वृत्ति । पापी पेट भरंतड़ां, दोहिलौ छै विण वित्त ॥४॥ लखमीपुर गामे' ‘गया, जुदा पड्या जुवान । हरदत्त व्याध तणै घरे, काम करै तजि मान ॥५॥ अन्य दिवस कर झूफड़ौ, पास रह्यौ हरदत्त । आहे. इक जीव नै, आणे आप निमित्त ॥ ६॥
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