Book Title: Samaysara Samay Deshna Part 01
Author(s): Vishuddhsagar
Publisher: Anil Book Depo

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Page 7
________________ (2) यद्यापि यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि षष्ठम् गुणस्थानवर्ती मुनिराज भी सराग सम्यग्दृष्टि ही है फिर भी वे विषय कषायादि से रहित होने के कारण व्यवहार से वीतरागी कहे जाते है । निश्चय से तो वीतराग चारित्र के धारी अप्रमत्तगुणस्थान को आदिसे लेकर उपरिम गुणस्थानवर्ती मुनि ही वीतरागी कहे जाते हैं । इसी प्रकार उन अप्रमत्तादि गुणस्थानवर्ती जीवों को ही वीतरागी निश्चय सम्यग्दृष्टि कहा जाता है अध्यात्म भाषामें उन्हे ही सम्यग्दृष्टि शब्द से समझाया गया है । न कि उसे चतुर्थगुणस्थानवर्तीका तथा अध्यात्म ग्रंथोमें उन अप्रमत्तगुणस्थाना वर्ती मुनि को ही. ‘‘वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञानी या भेद विज्ञानी अथवा ज्ञानी शब्द से पुकारा गया है ।। गाथा जं अण्णाणी कम्मं खवेदि भवसय सहएस कोडिहिं । ाणी लिहु गत्तो खवेदि अस्वस्त भेत्रेण ।। प्रा. सा. २३२ । इस गाथा में 'णाणीलिहुगुत्तो' शब्द महत्वपूर्ण है। उन्हे ही निर्विकार स्वं संवेदन ज्ञानी, तत्त्वज्ञानि (१०७) निर्विकल्प स्वसंवेदन लक्षण भेदज्ञान (१२५) वीतराग स्व संवेदन ज्ञान (१२४) अथवा भावकर्मद्रव्यकर्म नोकर्म रहित मनन्त ज्ञानादि गुण स्वरुप शुद्धात्मानं निर्विकार सुखानुभूति लक्षणेन भेदज्ञानेन विझानन्ननुभवन ज्ञानीजीवः " इसी प्रकार छहढाला में भी कहा है कि "ज्ञानी से धिन मांहि त्रि गुणित से सहज टरें तै" उस वाक्यों सा तात्पर्म यही है कि तीन गुप्ति के धारी मुनि ही 'ज्ञानी' शब्द से अध्यात्म ग्रंथों में स्वीकृत किये गये है, आम जनता नहीं । अध्यात्म ग्रंथों के पठन पाठन तथा श्रवण श्रावण के समय हमें उक्त वाक्यों का जरुर ध्यान रखना चाहिए । और उसे समय समय पर स्पष्ट करते रहना चाहिए ताकी कोई श्री दिग्भ्रमित न ही क्योंकि कहा भी है कि जग सुहित कर सब अहित हर श्रुति सुबद सब संशयहरे भ्रमरोग हर जिनके वचन मुखचंद्र ते अमृत झरें । आचार्य श्री विशुध्द सागर जी निरंतर अनिन्ह भाव के साथ कृतज्ञता, कर्तव्यनिष्ठा के साथ गुरु आज्ञानुशासन का पालन करते हुए स्व-पर हित में संलग्न है गहन मेहनत कर जो उन्होंने "समयदेशना” का सृजन किया है वह प्रशंसनीय है, पाठकों को मननीय एवं चिंतनीय है मेरा उन्हे तथा उनके इस कार्य के लिये शुभाशीष - नं. १/६/२५३५ वर्षायोग गांधीनगर. Jain Education International ➖➖➖➖ ॐ नमः For Personal & Private Use Only - गणाचार्य विरागसागरजी www.jainelibrary.org

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