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मंगलशीष
दलिक शब्द रचना पट ग्रंथ/शास्त्रका पूर्ण नाम 'समयसार प्राभृत' है जिसका अर्थ है 'समय' यानि 'आत्मा' - 'सार' अर्थात् प्रयोजनीय आध्यात्मिक तत्त्व 'प्रा''यानि उत्कृष्ट रुप से 'भृत' अर्थात भरा हुआ है । वह नय सार प्राभृत है। 'समयसार' उसका ही एक देश नाम है । यह अध्यात्मिक तत्त्ववेता श्री कुंदकुंदाचार्य की मूल्य कृति है . जो वास्तविक समयसार की उपलब्धि का एक प्रबल साधन है । पर इसकी पात्रता के विषय श्री जयसेनाचार्य जी तात्पर्यवृत्ति में लिखते हैं कि,
___ 'अत्र ग्रंथे वस्तुवृत्त्या वीतराग सम्यग्दृष्टेर्ग्रहणं, यष्तु चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सराग सम्यग्दृष्टिस्तस्य गौणवृत्त्या हण' (गाथा १९३ की टीका)
__ अर्थात - इस ग्रंथमें वास्तविक रुप से निश्चय से वीतराग सम्यग्दृष्टि को ग्रहण किया गया है और जो तुर्थ गुणस्थानवर्ति सराग सम्यग्दृष्टि है उसका गौणवृत्ति से ग्रहण किया गया है। तथा आगे पुनः इसीबात को हराते हुए गाथा २०१-२०२ की तात्पर्य वृतिमें लिखते है कि,
'अत्रतुग्रंथे पञ्चमगुणस्थानादुपरितन गुणस्थानवर्तिनां वीतराग सम्यग्दृष्टिनां मुख्यवृत्त्या ग्रहणं, सराग सम्यदृष्टिनां गौणवृत्येति व्याख्यानं सम्यग्दृष्टि व्याख्यानज्ञ सर्वकाले तात्पर्येण ज्ञातव्यम्' ।।
अर्थात, यहाँ इस ग्रंथ में पांचवे गुणस्थान से ऊपर वाले गुणस्थान वाले वीतराग सम्यग्दृष्टि जीवों का मुख्यरुप से ग्रहण है सराग सम्यग्दृष्टि का गौण रुप से ऐसा व्याख्यान सम्यग्दृष्टि के व्याख्यान समय में सभी जगह तात्पर्य रुप से जानना चाहिए ।
एक प्रश्न हो सकता है कि चतुर्थ गुणस्थानवी जीव के ४३ कर्म प्रकृति के अभाव में उतने अंश मे वीतरागता हो सकती है क्या ? तात्पर्यवृत्तिमे इसे इस प्रकार कहा है - "रागी सम्यग्दृष्टि न भवतीति भणितं भवद्भिः, तर्हि चतुर्थ पञ्चम गुणस्थानवर्तिन तीर्थंकर भरतसगर राम पाण्डवादय : सम्यग्दृष्टयो न भवत्ति? इति । तन्न, मिश्या दृष्ट्यापेक्षा त्रिचटत्वाटिंशट प्रकृतिनां बन्धाभावातसराग सम्यग्दृष्टयो भवत्ति । कथं इति चेत् चतुर्थ गुणस्थानवर्तीना जीवानां अनंतानुबंधि क्रोधमानमायालोभमिथ्या पाषाणटेखादि समानाना रागादिनामभावात् । पञ्चम गुणस्थान वर्तिनां पुनर्जीवानां अप्रत्याख्यान क्रोध मान माया लोभोदय जनितानां भूमिरेखादिसमानानां रागादिनामभावत् इति पूर्वमे भाणितमास्ते । (ता.वृ.गा.२०१.२०२)
अर्थ.-रागी सम्यग्दृष्टी नहीं होता है. ऐसा आपने कहा है तो चतुर्थ पञ्चम गुणस्थानवर्ती (गृहस्थावस्थामें) तीर्थंकर भरत सगर राम पाण्डव आदि सम्यग्दृष्टि नहीं कहलायेंगे? उत्तर - ऐसा नहीं किन्तु मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा त्रैतालीस (४३) प्रकृतियों के बंध का अभाव होनेसे (वे) सराग सम्यग्दृष्टि होते हैं क्योंकि चतुर्थगुणस्थानवर्ती जीवों के अनंतानुबंधी क्रोधमान मायालोभ और मिथ्यात्व के उदय से पाषान (पत्थर) की रेखा (लकीर) के समान वालों के रागादिका अभाव है (इसलिये वे वीतरागी नहीं किन्तु सराग सम्यग्दृष्टि है)पंञ्चम गुणस्थानवर्ती जीवोंके अप्रत्याख्यान क्रोध मान माया लोभ के उदय से भूमिरेखादि के समान रागादि का अभाव है (इसलिये वे भी सरागी ही है न कि वीतरागी) ऐसा पूर्व में भी कह चुके है ।
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