Book Title: Samaysara Drushtantmarm Author(s): Manohar Maharaj Publisher: Sahajanand Shastramala View full book textPage 9
________________ ( २ ) सहजानन्दशास्त्रमालायां अग्निदाह्यमें रहने के कारण अशुद्ध है, भिन्न व स्वतन्त्र नहीं है । वैसे "केवल ज्ञान निराधार कैसे होगा ? ज्ञान तो जिसे जान रहा है उस ज्ञ के आधार में, आकार में रहता है; इस तरह ज्ञान ज्ञ यमें रहनेके कारण अशुद्ध है, भिन्न व रवतन्त्र नहीं है" ऐसी श्रशुद्धता आत्मामें नहीं समझना । क्योंकि, जायकरूपसे जाना गया यह आत्मा खुद ही खुदको जानता है, वह ज्ञान में नहीं रहता, इसलिये ज्ञान या ज्ञानमय आत्मा सर्व परसे भिन्न होने से शुद्ध है । ४ - ज्ञायक आत्माज्ञयसे भिन्न है । जैसे- दीपक खुद खुदको प्रकाशित करता है; यद्यपि स्वयं प्रकाशमान दीपकके द्वारा घट पटादि पदार्थ प्रकाश्य हो जाते हैं तथापि दीपक घट पटादि पदार्थोंमें नहीं रहना है घट पटादि पदार्थोसे दीपक भिन्न है । वैसे- श्रात्मा खुद खुदको प्रतिभासता है । यद्यपि स्वयं प्रतिभासमान ज्ञान या ज्ञायक आत्मा के द्वारा वाह्य पदार्थ ज्ञय हो जाते हैं तथापि ज्ञान या ज्ञायक श्रात्मा बाह्य ज्ञेय पदार्थों में नहीं रहता है । ज्ञय वाह्य पदार्थोंसे आत्मा भिन्न है, वह पर ज्ञेय पदार्थोंको कुछ नहीं करता । वास्तविकता यह है कि प्रत्येक पदार्थोंमें स्वयं स्वयं में ही कर्ता कर्मपना होता है । ५-- द्रव्यदृष्टि से विज्ञान शुद्ध श्रात्मा परमार्थ है, यही ध्येय है और यही वक्तव्य है तथापि जिन्हें परमार्थका परिचय नहीं है उन्हें समझाने का उपाय व्यवहार ही है । जैसे -मात्र अंग्रेजी जाननेवाले राजाके पास जाकर कोई संस्कृतन पंडित 'स्वस्ति' ऐसा आशीर्वाद कहे तो वह राजा उस शब्दका अर्थ नहीं जाननेसे मेंढेकी तरह की टक्टको लगाकर पंडितकी ओर देखता रहता है। क्योंकि पंडितकी मुखमुद्रासे वह यह तो जान गया कि कुछ अच्छी बात जरूर कही है किन्तु क्या कही यह नहीं समझा | जब अंग्रेजी व संस्कृत दोनों भापावोंका जानकार वही पंडित या अन्य विद्वान जब 'स्वस्ति' का भाव अंग्रेजी भाषा में अनुवादित • करके कहता है कि 'may be blessed' तब वह राजा बड़ा प्रमुदिन का हुआ इस तथ्य को समझ जाता है । वैसे मात्र भेद पर्यायरूप हो 1Page Navigation
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