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अथ कर्तृकर्माधिकारः (३५ ) स्वयं ही ध्वस्त हो जाते हैं । वस्तुतः कोई भी द्रव्य किसी भी अन्य द्रव्यके . सुध र अथवा विनाशका कर्ता नहीं है।
१७-कर्मवन्धन होनेका मूल निमित्त कारण अज्ञान ही है। जैसे कोई प्राणी ठंडे पानीके स्पर्शसे अज्ञानसे अपनेको ठंडा अनुभव करता है । यद्यपि वह ठंडापन पुद्गलमे ही है, जीवसे वह अत्यन्त भिन्न है, जीव शीतरूप कभी हो हो नहीं सकता. तो भी अज्ञानसे परमें व निजमें भेदविज्ञान न करनेसे मैं ठंडा हो गया हूँ, ऐसा अनुभव करने लगता है। इसी प्रकार अज्ञानी जीव राग द्वाप आदि प्रकृतिरूप पुद्गलके परिणमनको अनानसे आत्मरूप अनुभव करता है । यद्यपि वह प्रकृतिपना पुद्गलमें ही है, जीवसे वह अत्यन्त भिन्न है, जीव प्रकृतिरूप कभी हो ही नहीं सकता, तो भी अज्ञानसे परमें व निजमें भेद विज्ञान न करनेसे में इस रागद्वे पादि प्रकृतिरूप हो गया हूँ, ऐसा अनुभव करने लगता है अथवा राग पादि विभाव जो कि पुद्गलके परिणामस्वरूप (फलस्वरूप) अवस्था है, उसको अज्ञानसे यह अज्ञानी जीव आत्मरूप अनुभव करता है। यद्यपि ये रागद्वेषादि विभाव औपाधिक है, पुद्गल कर्मारोपित विकार हैं, जीवके शुद्ध (निरपेक्ष) स्वरूपसे अत्यन्त भिन्न हैं, जीवका निरपेक्ष स्वभाव परारापित विकाररूप कमी नहीं हो सकता है, तो भी अज्ञानसे परभाव व निज स्वभावमे भेदविज्ञान न होनेसे अज्ञानी जीव अपने स्वभावको रागद्वपादि विकाररूप ही अनुभव करता है । तब ऐसे अज्ञान भावका निमित्त पाकर कर्मवन्धन हो जाता है । इस प्रकार कर्मवन्धनका मूल निमित्त कारण अज्ञान ही है । अज्ञानसे जीव कर्मका कर्ता प्रतिभात होता है।
-ज्ञानसे नीव कर्मका अकर्ता होता है, ज्ञान होनेपर कर्मका बन्ध रुक जाता है । जैसे कि कोई प्राणी ठंडे पानीके संयोगमें भी अपना विवेकवल सही रखे और जाने कि यहां शीत स्पर्श तो पानी में ही है, वह तो पुद्गल परिणामको अवस्था है, सो वह उस पुद्गल स्कन्ध (पानी) से अभिन्न है, आत्मासे तो अत्यन्त भिन्न है। हां उस स्कन्ध संयोगको