Book Title: Samaysara Drushtantmarm
Author(s): Manohar Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala

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Page 86
________________ सर्व-विशुद्धज्ञानाधिकार ( ७६ ) स्पर्श आत्मा पर जबर्दस्ती नहीं करते कि तुम हमें देखो, स्वादो, सूघो, छुवो और न श्रात्मा अपने स्थानसे च्युत होकर रूपादिका विषय करने के लिये जाता है । इसी तरह गुण, द्रव्य आदि भी आत्मापर जबर्दस्ती करते हैं कि तुम हमें जानो और न आत्मा अपने स्थानसे च्युत होकर गुण, द्रव्यादिको जाननेके लिये जाता है । ↓, २२३ -- जब ऐसा स्वरूप है तब जैसे घट पटादि पदार्थों के प्रकाशित हो जाने से दीपक में विकार पैदा नहीं होता कि कहीं काले घटके प्रकाशित हो जाने से दीपक काला हो जाय या तिखूंटी तिपाई के प्रकाशित हो जाने से दीपक तिखूंटा हो जाय आदि । इसी प्रकार मनोज्ञ या अमनोज्ञ विषयोंके ज्ञेय हो जाने से आत्माको (ज्ञानको) विकृत नहीं हो जाना चाहिये कि कुछ विषयो ज्ञ ेय होनेसे आत्मा मे हर्प उत्पन्न हो और कुछ विषयोंक ज्ञय होने से आत्मा विषाद उत्पन्न हो आदि । तो भी राग द्वेष होते हैं, इसका कारण अज्ञान ही कहा जा सकता है । २२४--चेतनाके विकास तीन प्रकारसे होते हैं - (१) ज्ञानचेतना, (२) कर्मचेतना, (३) कर्मफलचेतना । ज्ञानके अतिरिक्त अन्य तरङ्गों को करने व भोगने रूप न चेते किन्तु स्वभावको ही चेते वह तो ज्ञानचेतना है और ज्ञान से अतिरिक्त अन्य कर्मोंको मैं करता हूँ, ऐसा चेते वह कर्मचेतना तथा कर्मों के फलोको मैं भोगता हूं, ऐसा देते वह कर्मफल चेतना है । ज्ञानी जीव कर्मचेतनाका वहिष्कार करता है । यदि कोई क्रिया हो तो उसका ज्ञाता रहता है। ज्ञानी जीव कर्मफल के भोगनेका वहिष्कार करता है, यदि कोई कर्मफल आवे तो उसका ज्ञाता रहता है। ज्ञानी जीवके तव विचार उठे तो ऐसा उठता है कि ये कर्मफल मेरे भोगे विना ही गल जावो । जैसे विपवृक्षके फलोंके खानेका परिणाम घातक हैं, वैसे ही इन कर्मों के फलोंके भोगका परिणाम घातक है । २२५ - जिस ज्ञानका संचेतन ज्ञानचेतना है वह ज्ञान आत्मस्वरूप आत्मा ही है अन्य कुछ चाहे वह शब्द, रूप, शास्त्र, आकाश, रागादिभाव आदि कुछ हो, ज्ञान नहीं है । अतः वास्तव में ज्ञानकी अभेद

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