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(८०) समयसारप्टान्तमर्म उपासना ही मुक्तिका कारण है। यद्यपि ज्ञानोपासनामें उद्यत जीवोंके देहका लिङ्ग (चिह्न) निरारम्भ निष्परिग्रहका हो जाता है तो भी देहका लिङ्ग मोक्षका कारण नहीं है । जो लोग देहके लिङ्गसे ही मुक्ति माननेके कारण इस ही व्यवहारमें मुग्ध हो जाते हैं वे परमार्थका उपयोग नहीं कर सकते । जैसे किसी कुशल व्यापारीका धान्य खरीदनेका व्यापार देखकर कोई ऊपरी रंग ढगकी चीजमें सारका विश्वास रख धान्य जैसे रूप रंगका धान्यका छिलका उस भावमें खरीद लेता है तो चांवलको तो नहीं प्राप्त कर सकता।
इस प्रकार शुद्ध आत्मतत्त्व अर्थात् समयसारका यथार्थ स्वरूप जानकर उसके उपयोगमें रहना निर्विकार होनेका, शान्न प आनन्दमई होनेका उपाय है । इस ही के परिणाममें यह सर्वज्ञाता व सर्वदर्शी हो जाता है । इस पदमें सवका पूर्ण एक स्वरूप रहता है।
ॐ नमः शुद्धाय, ॐ नमः सहज सिद्धाय, ॐ शुद्ध चिस्मि । ॐ तत् सत।
ॐ शान्तिः, ॐ शान्तिः, ॐ शान्तिः । - इति सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार समाप्त
रोशनलाल शर्मा के प्रवन्ध से मोहन प्रिन्टिङ्ग प्रेस, मेरठ में छपी।