Book Title: Samaysara Drushtantmarm
Author(s): Manohar Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala

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Page 76
________________ सर्व विशुद्धज्ञानाधिकार (६६) होती है वह किसी पदार्थ से बनाई नहीं जाती, जो प्रकट हुई है वह चीज उस पापाणमे थी। अगल वगलके पत्थर खण्ड दूर हुए कि वह प्रकट हो गई । इसी प्रकार समयसार जो प्रकट होता है अथवा शुद्ध आत्मा जो प्रकट होता है वह किन्हीं पदार्थसे नहीं आता वह तो सदा अन्तः प्रकाशमान है, राग, द्वेष आदि अज्ञान भाव अंश दूर हुए कि वह प्रकट हो गया। २०१-तथा जैसे आत्मा किन्हीं अन्य पदार्थोंसे नहीं बनता है, प्रकट नहीं होता वैसे ही अन्य कोई पदार्थ आत्मासे नहीं बनते, प्रकट नहीं होते । इसका कारण यह है कि सर्व द्रव्योंकी परिणतियोंका खुदके द्रव्यमे ही तादात्म्य होता है, जैसे कि सुवर्णको कट क, कुण्डल आदि जो जो भी परिणतिया होती हैं उन तादात्म्य सुवर्णमें ही तो होता है, सुनार या पहिनने वालेमै तो नहीं होता । जब परिणतियां स्वयं स्वयंकी रवयं स्वयमे होती तव एक पदार्थका दूसरे पदार्थके साथ कर्ताकर्मभाव कैसा । अतः आत्मा अजीवका अकर्ता है, कोई भी अजीव जीवका कर्म नहीं है । और जैसे आत्मा परका कर्ता नहीं है, वैसे ही परका मोचक (छोड़ने वाला या छुड़ाने वाला) भी नहीं है । इस तरह परम शुद्ध (सर्व विशुद्ध) निश्चयनयसे जोव न वन्धका कर्ता है और न मोक्षका कर्ता है अथवा जीव वन्ध मोक्षकी रचनासे रहित है। २०२-फिर जीवका कर्म प्रकृतियोसे बन्ध क्यो हुआ ? इसका समाधान यह है कि यह सब अज्ञानकी महिमा है। जो कुछ यह सव विभावरूप वात उत्पन्न हो रही है वह निमित्तनैमित्तकताका परिणाम है। जव स्व परका यथार्थ स्वलक्षणका ज्ञान नहीं होता तव जीवको पर व स्वमें एकत्वका अध्यास होता है सो कर्ता वनकर यह जीव कर्मोदयका निमित्त पाकर नाना रूपों में उत्पन्न होता है, नष्ट होता है और जीव इस अज्ञान भावको निमित्त पाकर कर्म भी नाना रूपोंमें आता है। इस प्रकार कर्ताकर्मभाव तो नहीं है किन्तु परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव है। इसी कारण कताकर्म व्यवहार है व भोक्ता भोग्य व्यवहार भी है। अज्ञान दूर

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