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थक कर्माधिकारः
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इसी प्रकार जो ज्ञेयविकल्प होते हैं, उनमें व निज ध्रुव स्वरूपमें अन्तर न समझने से उन ज्ञयविकल्पों को भी कर्ता हो जाता है ।
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१००- -जैसे कि मुझमें भूत प्रावष्ट हो गया है, इस ध्यानसे जो बिड़ा हुआ है, वह पुरुष अज्ञानसे भून और श्रात्माको (अपनेको) एकमेक # मान्यता में कर देता है । अतः जो मनुष्यको अनुचित है, ऐसे अमानुषव्यवहारका कर्ता हो जाता है । इसी प्रकार मैं क्रोध हूँ, इस प्रकार परभाव को जो अपना लेना है व मैं पर ज्ञयरूप हूँ. इस प्रकार पर पदार्थको अपना लेना है, वह अज्ञान से विकार रूप परिणामसे परिणमकर विकारभावका : कर्ना होता है ।
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१०१ - जैसे किसी अज्ञानी गुरुके आदेश से किसी शिष्यने ऐसा · ध्यान जमा लिया कि मैं महिपा (भैंसा) हूं और ऐसा भैंसा हूँ, जिसके सींग एक एक गनके हैं। बस इस वासनासे भैंमा व आत्माको (अपनेको) एकमेक मान्यता में करता हुआ वह "अब इस दरवाजेसे कैसे निकलू" इत्यादि संक्लिष्ट भावोंका कर्ता हो जाता है। इसी प्रकार ज्ञेय पदार्थ व निज आत्म तत्त्वको एकमेक करता हुआ अज्ञानी जीव भी इन्द्रियजविषयसम्बन्धिविकल्पोंसे तिरस्कृत होकर ज्ञयविकल्प ही मैं हूँ, ऐसे भावका कर्ता हो जाता है । यह सब कर्तृत्वबुद्धि अज्ञानी की महिमा है ।
१०२ - यदि इस ही प्रकारका तथ्य ज्ञात हो जाय तो वह जीव अकर्ता हो जाता है । कर्ता तो जीव अज्ञान भावमें ही होता है । जैसे कि हाथी तृण और मिठाई दोनों भोजन रक्खे हों, तो भी मिलित स्वादुके स्वादन की प्रकृति से उनमें भेद विज्ञान न कर दोनों को एक साथ खा लेता है । इसी प्रकार अज्ञानी नीव भी स्वभाव व परभाव में भेदविज्ञान न करके दोनोंको एकमेक करता हुआ मिलित स्वादका स्वादन करता है, अच भेदविज्ञानकी शक्ति मुद्र जानेके कारण विभावमात्र अपनेको अनुभव करता है ।
१०३ -- यह जीव अज्ञानवश ज्ञान व ज्ञेयमें भेद नहीं कर पाता अतः ज्ञयज्ञायक सम्वन्धवश होने वाले प्रवाह में वह कर ऩयकी और