Book Title: Samaysara Drushtantmarm
Author(s): Manohar Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala

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Page 70
________________ वन्धाधिकार ( ६३ ) सुखी तो नहीं होता । तात्पर्य यह है कि परके विचारनेसे अन्य में स्वार्थक्रिया तो नहीं हुई। जहां स्वार्थक्रिया नहीं है। वह झूठ है । जैसे कोई ऐसा अध्यवसान करे कि मैं काशके फूल तोड़ना हूँ तो वह झूठा ही भाव तो है । १८३ - इसी प्रकार कोई जीव सोच कि मैं, पर जीवको वांधता हूँ या छुटाता हूं तो यह भाव भी मिथ्या है। जैसे किसीने (सीताके जीव प्रतीन्द्र ) यह भाव किया कि मैं अमुकको (रामचन्द्र जीको) बांधता हूँ तो मुका (रामचन्द्र जीका ) सराग परिणाम नहीं है तो वह बंध तो नहीं सका | इसी तरह छुड़ाने की भी बात समझना । कोई जीव सोचे कि मैं श्रमुकको मुक्त वनादू और अमुकके वीतराग परिणाम न हो तो श्रमुक मुक्त तो नहीं हो जायगा । श्रतः सभी श्रध्यवसान मिथ्या हैं । १८४ - अज्ञानी जीव निष्फल रागादिभावसे मोहित होकर किसी भी परभाव को अपने रूप करता रहता है। जैसे नारकादिभाव होते हैं, नरकगत्यादिकर्मके उदयसे और अज्ञानी जीव मैं नारकी हूं आदि प्रतीति से अपनेको नरकादिरूप करता है । अथवा जैसे हिंसारूप भावके द्वारा अपनेको हिंसक करता है इत्यादि । 1 १८५ - इतना ही नहीं, किन्तु अज्ञानी जीव ज्ञेय पदार्थों को भी अपरूप किया करता है। जैसे कि धर्मास्तिकायको जानता हुआ मानता है कि मैं धर्मास्तिकाय हूँ । पुद्गलको जानता हुआ मानता "मैं पुद्गल हूं", अन्य प्राणीको जानना हुआ मानता है कि मैं यह प्राणी हूँ। यहां यह प्रश्न होना प्राकृतिक है कि ऐसा तो कोई विकल्प नहीं करता । समाधान यह है कि जैसे घटाकारपरिगत ज्ञान उपचारसे घट कहा जाता है इसी प्रकार से धर्मास्तिकाय आदिकी परिच्छित्तिरूप जो विकल्प है वह भी उपचार से धर्मास्तिकायादि रूप कहा जाता है। जब जीव "यह धर्मास्तिकाय है" ऐसा विकल्प करता है तब धर्मास्तिकाय भी उपचार से किया हुआ होता है । तात्पर्य यह है कि मोही जीव ज्ञयाकार विकल्प से विलक्षण स्वरूप वाले निज तत्त्वकी प्रतीति नहीं कर सकता ।

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