Book Title: Samaysara Drushtantmarm
Author(s): Manohar Maharaj
Publisher: Sahajanand Shastramala

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Page 72
________________ मोक्ष अधिकार (६५) और न अनुमोदयिता वने याने मन वचनकाय कृत कारित अनुमोदनारूप नव विकल्पोसे जो साधु आहारके विषयमे शुद्ध है तो परकृत आहारके विषयमे वन्ध नहीं है । यदि परके परिणामसे बन्ध होने लगे तो कभी भी निर्वाण नही हो सकता । इस तरह रागादिकी उत्पत्तिमे निमित्तभूत पर द्रव्य है तो भी स्वतन्त्र सत्तात्मक यथार्थ स्वरूपके ज्ञानसे निमित्त, संयोग भी स्वयं हट जाता और आत्मा रागादिरहित हो जाता है। इति बन्धाधिकार समाप्त मोक्ष अधिकार १८६ - अव मोक्ष तत्त्वके सम्बन्धमे प्रथम यह विचार किया जाता है कि कर्मसे मुक्त होने का उपाय क्या है ? कोई पुरुप ऐसा मानते हैं कि कर्मवन्धके स्वरूपक परिज्ञानमानसे जीव कर्मसे मुक्त हो जाता है सो यह बात नहीं है । जैसे कोई कैदी यह जाना करे कि ये वेड़ियां इस तरह पड़ी है, अमुक दिन पड़ी हैं, ऐसी कठोर है, तो क्या इतने ज्ञानसे केदीकी वेड़ियां खुल जायेंगी ? नहीं। वेड़ियां तो वेड़ियोंके वन्धके छेदनसे ही दूर होगी । इसी प्रकार कोई जीव यह जाना करे कि अमुक कर्म इस प्रकृतिका है, इतनी स्थिति है, ऐसा अनुभाग है, इस परिणामके निमित्तसे बन्धा है, तो क्या मात्र इतने जाननेके कारणसे वह बन्धसे मुक्त हो जायगा' नहीं । वन्धसे मुक्ति तो वन्धके छेदनसे ही होगी याने मोह, राग, द्वेपरूप परिणमन व अनंतज्ञानादि गुणमय आत्मस्वरूपमें प्रज्ञा द्वारा भेद करके निजपरमात्मस्वरूपमें स्थित होनेसे ही बन्धनसे मुक्ति होगी। १९८-कोई जीव ऐसा भी सोचते हैं कि बन्धसे छूटनेके चिन्तन, ध्यानसे मुक्ति हो जायगी सो यह भी वात नहीं है । जैसे कि कोई कैदी यह चिन्ता अथवा ध्यान किया करे कि 'मैं वेडीसे छूट जाऊं, मेरी बेड़ी टूट जाय तो क्या इस चिन्तासे बेड़ी कट जायेंगी? नहीं। बेड़ी तो वेडीके

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