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सहजानन्दशास्त्रमालायां
जाता है, वही समयसारका अनुभव करता है ।
१२५ - जिसके निष्पक्ष तत्त्वज्ञानका विकास ही समस्त इन्द्रजाल ( विकल्पजाल) को नष्ट कर देता है, वह चैतन्यमात्र तेज मैं हूँ । इस परमपारिणामिक भावका परिचय पा लेने वाले ज्ञानीके परपदार्थ के परिग्रहण करने में उत्सुकता नहीं रहती है, अतः वह वस्तुरत्ररूप व विकल्पोंका स्वरूप ही जानता है, किन्तु नित्य उदित चिन्मय स्त्रभाव में उपयुक्त होने से उस समय वह स्वयं विज्ञानघनभूत है, अतः वह किसी भी नयपक्षको ग्रहण नहीं करना । जैसे कि भगवान् केवल ज्ञानी देव विश्व ज्ञाता होने से वस्तुस्वरूप व विकल्पादि पर्यायोंका स्वरूप ही जानते हैं, किन्तु स्वयं विज्ञानघनभूत होनेके कारण किसी भी नयपक्ष के परिग्रहका अत्यन्त अभाव है, अतः किसी भी नयपक्षको ग्रहण नहीं करते ।
१२६ - इस जीवके अनादिसे अब तक मतिज्ञान श्रुतज्ञानके परिणाम व प्रवाह रूपसे चले आये । सो ये उठे तो स्वभावमें से परन्तु मिथ्यात्व के उदयवश अपने स्रोतका विलास छोड़कर इन्द्रिय व मन द्वारसे परके विलासकी बुद्धिमें उपयुक्त रहे, विकल्प जाल में भ्रमण करते रहे । जब प्रज्ञावलसे आत्माको ज्ञानानन्दस्वभावी निश्चित कर लेता है, तब परसे लौट कर आत्मा अभिमुख होकर ये ज्ञान आत्मविलास करते हैं व निर्विकल्प होकर समयसार (स्व) का संवेदन करते हैं । जैसे कि समुद्र का जल समुद्र में शोभा देता है, वही जल रविके प्रखर किरणोंके संयोगवश अपने स्थानसे च्युत होकर व सघन होकर यत्र तत्र वादलोंके रूपमें घूमता रहता है | जब वही जल तरल स्वभाव में आता है, तव वरसकर व समुद्र के अनुकूल निम्न पथ से वह कर समुद्र में मिल जाता है ।
इति कर्तृकर्माधिकार समाप्त
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'पुण्यपापाधिकार
१२७ -- इस तरह निमित्तनैमित्तिक भाव होनेपर भी केवल एक